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रही है कि ष०० में जहाँ उन आगम विषयक उपयोगों में 'अनुप्रेक्षा' को ग्रहण किया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में अनुपयोग को द्रव्य मानकर उसका निषेध किया है ।
४. ० ख० में नैगम और व्यवहार इन दो नयों की अपेक्षा एक अनुपयुक्त और अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा गया है। (सूत्र ५६, पु० )
अनुयोगद्वार में भी इसी प्रकार से नैगम नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को एक, दो अनुप युक्तों को दो और तीन अनुपयुक्तों को तीन आगम से द्रव्यावश्यक बतलाते हुए यह कह दिया गया है कि इस प्रकार जितने भी हैं वे नैगम नय की अपेक्षा आगम से द्रव्यावश्यक हैं। आगे यह सूचना कर दी गई है कि नैगम नय के समान व्यवहार नय से भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए । (सूत्र १५)
इस प्रकार आगम द्रव्यकृति और आगम द्रव्यावश्यक के स्वरूप विषयक दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय सर्वथा समान है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ नैगम और व्यवहार इन दोनों नयों की विवक्षा को एक साथ प्रकट कर दिया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में प्रथमतः नैगम नय की विवक्षा को दिखलाकर तत्पश्चात् व्यवहारनय से भी उसी प्रकार जान लेने की सूचना कर दी गई है ।
इसी प्रकार ष० ख० में जहाँ एक-दो-तीन आदि अनुपयुक्तों का पृथक्-पृथक् उल्लेख न करके दो-तीन आदि अनुपयुक्तों को अनेक अनुपयुक्तों के रूप में ग्रहण कर लिया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में एक, दो व तीन अनुपयुक्तों का निर्देश करके आगे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस प्रकार से जितने भी अनुपयुक्त हों उन सबको आगम से द्रव्यावश्यक जान लेना चाहिए ।
आगे दानों ग्रन्थों में संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द नय की अपेक्षा जहाँ क्रम से आगम द्रव्यकृति और आगम द्रव्यावश्यक के स्वरूप का निर्देश है वहाँ भी थोड़ी विशेषता के साथ लगभग समान अभिप्राय ही प्रकट किया गया है ।"
५. षट्खण्डागम में आगे उक्त नोआगमद्रव्यकृति के तीन भेदों में दूसरे भेदरूप भावी द्रव्यकृति के विषय में कहा गया है कि जो जीव भविष्य में कृतिअनुयोगद्वारों के उपादानकारणस्वरूप से स्थित है, वर्तमान में कर नहीं रहा है उसका नाम भावी द्रव्यकृति है । ( सूत्र ६४ )
अनुयोगद्वार में भाविशरीर द्रव्यावश्यक प्रसंग में कहा गया है कि योनिजन्म से निष्क्रान्त जो जीव ग्रहण किये गये इसी शरीरोत्सेध से जिनोपदिष्ट भाव से 'आवश्यक' इस पद को भविष्य काल में सीखेगा, वर्तमान में सीख नहीं रहा है, उसे भाविशरीर द्रव्यावश्यक जानना चाहिए । यहाँ दृष्टान्त दिया गया है— 'यह मधुकुम्भ होगा, यह घृतकुम्भ होगा ।' (सूत्र १८ ) इस प्रसंग में दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय प्रायः समान है। विशेष इतना है कि अनुयोगद्वार में उसके स्पष्टीकरण में मधुकुम्भ और घृतकुम्भ का दृष्टान्त भी दिया गया है, जो ष० ख० में उपलब्ध नहीं है ।
यहाँ यह स्मरणीय है कि ष० ख० में जहाँ यह प्ररूपणा 'कृति' को लक्ष्य में रखकर की गई है वहाँ अनुयोगद्वार में 'आवश्यक' को लक्ष्य में रखा गया है ।
१. ष० ख० सूत्र ५७-५६ ( पु० ६ ) और अनु० सूत्र १५ [ ३-५ ५७ [५] व ४८३ [५] ।
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६५
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