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में अपूर्व पाण्डित्य को प्राप्त करने के कारण ही उन्हें 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' को सम्मान्य उपाधि प्राप्त थी।
व्यवस्थित रूप में समस्त सैद्धान्तिक विषयों के प्ररूपक उस सुगठित, संक्षिप्त व सुबोध गोम्मटसार के सुलभ हो जाने से प्रस्तुत षट्खण्डागम का प्रचार-प्रसार प्रायः रुक गया था। उसके अधिक प्रचार में न आने का दूसरा एक कारण यह भी रहा है कि कुछ विद्वानों ने गृहस्थों, आर्यिकाओं और अल्पबुद्धि मुनिजनों को उसके अध्ययन के लिए अनधिकारी घोषित कर दिया था।'
- इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण यह भी रहा है कि इन सिद्धान्त-ग्रन्थों की प्रतियां एक मात्र मूडबिद्री में रही हैं व उन्हें बाहर आने देने के लिए रुकावट भी रही है। इससे भी उनका प्रचार नहीं हो सका।
यह गोम्मटसार ग्रन्थ जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दो भागों में विभक्त है। उनमें जीवकाण्ड में जीवों की और कर्मकाण्ड में कर्मों की विविध अवस्थाओं का विवेचन है । दोनों का आधार प्राय: प्रस्तुत षट्खण्डागम व उसकी धवला टीका रही है। इसी को यहां स्पष्ट किया जाता हैजीवकाण्ड
यहां सर्वप्रथम मंगलस्वरूप.सिद्ध परमात्मा और जिनेन्द्रवर नेमिचन्द्र को प्रणाम करते हुए जीव की प्ररूपणा के कहने की प्रतिज्ञा की गई है । आगे जीव की वह प्ररूपणा किन अधिकारों द्वारा की जायगी, इसे स्पष्ट करते हुए (१) गुणस्थान, (२) जीवसमास, (३) पर्याप्ति, (४) प्राण, (५) संज्ञा, (६-१६) चौदह मार्गणा और (२०) उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का निर्देश किया है। इन्हीं बीस प्ररूपणाओं का यहाँ विवेचन किया गया है। वह षट्खण्डागम से कितना प्रभावित है, इसका यहाँ विचार किया जाता है
जैसा कि ष० ख० के पूर्वोक्त परिचय से ज्ञात हो चुका है, उसके प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान में जो सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वार हैं उनमें १७७ सूत्रात्मक सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार की रचना आ० पुष्पदन्त द्वारा की गई है । आ० वीरसेन ने अपनी धवलाटीका में उन सब सूत्रों की व्याख्या करने के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की है कि अब हम उन सत्प्ररूपणा सूत्रों का विवरण समाप्त हो जाने पर उनकी प्ररूपणा कहेंगे। आगे 'प्ररूपणा' का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि ओघ और आदेश से गुणस्थानों, जीवसमासों, पर्याप्तियों, प्राणों, संज्ञाओं, गति-इन्द्रियादि १४ मार्गणाओं और उपयोगों में पर्याप्त व अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है उसका नाम प्ररूपणा है। यह कहते हुए
१. दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेमु णत्थि अहियारो। सिद्धान्तरहस्साण वि अज्झयणे देसविरदाणं ।।--वसुन० श्रा० ३१२ आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् ।
न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचार-पुस्तकम् ।।-नीतिसार ३२ २. इस मंगलगाथा में उपयुक्त सिद्ध व जिनेन्द्रवर आदि अनेकार्थक शब्दों के आश्रय से संस्कृत
टीका में अनेक प्रकार से इस मंगल गाथा का अर्थ प्रकट किया गया है। ३. धवला पु० २, पृ० ४११
पट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / ३०१
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