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स्वीकार नहीं करता' यह हेतु भी दे दिया गया है । (१५[४])
शब्द नय के प्रसंग में ष० ख० में जहाँ 'अवक्तव्य' कहा गया है वहाँ अनुयोगद्वार में 'अवस्तु' कहकर उसका कारण यह दिया है कि इस नय की दृष्टि में जो ज्ञायक होता है वह अनुपयुक्त नहीं होता, वह उपयोग सहित ही होता है । (१५[५])
नयों के विषय में एक ध्यान देने योग्य विशेषता दोनों ग्रन्थों में यह रही है कि षट्खण्डागम में सर्वत्र नगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच नयों का ही उल्लेख हुआ है।' परन्तु अनुयोगद्वार में उक्त पाँच नयों के साथ समभिरूढ़ और एवंभूत इन दो नयों को भी ग्रहण करके सात नयों का निर्देश किया गया है। यद्यपि प्रकृत में शब्दशः समभिरूढ और एवंभूत इन दो नयों का उल्लेख नहीं किया गया, फिर भी 'तिण्हं सद्दनयाणं' ऐसा कहकर उनकी सूचना कर दी गई है ।'
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम के रचनाकाल तक सम्भवतः समभिरूढ और एवम्भूत ये दो नय प्रचार में नहीं आये थे ।
५. षट्खण्डागम में नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेदों में दूसरे भेद का उल्लेख 'भवियदव्य' के रूप में हुआ है। वहाँ कहीं पर भी उसके साथ 'सरीर' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । पर अनयोगद्वार में सर्वत्र उसका उल्लेख 'भवियसरीरदव्व' के रूप में हआ है।"
१. आगे भी सूत्र ४,२,२,२-४; ४,२,३,१-४; ४,२,८,२ तथा १२ व १५; ४,२,६, २ और ११
व १४; ४,२,१०,२ और ३०,४८,५६ व ५८; ४,२,११,२ और ६ व १२; ४,२,१२,४ और ७,६ व ११; ५,३,७-८; ५,४,६-८; ५,५, ६-८; ५,६, ४-६ और ७२-७४ । यहाँ यह एक अपवादसूत्र अवश्य देखा जाता है --सद्दादओ णामकदि भावकदिं च इच्छंति (पु० ६, सूत्र ५०)। यहां सूत्र में 'शब्द' के साथ जो 'आदि' शब्द प्रयुक्त हुआ है उससे क्या विवक्षित रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। समस्त ष०ख० में कहीं पर भी समभिरूढ और एवम्भूत इन दो नयों का उल्लेख नहीं किया गया। धवलाकार ने अन्यत्र कुछ स्थानों पर सूत्रपोथियों में पाठान्तर की सूचना की है। सम्भव है उपर्युक्त सूत्र में 'सद्दणओ' के स्थान पर
'सद्दादो' और 'इच्छदि' के स्थान पर 'इच्छंति' पाठभेद हो गया हो। २. अनु० सूत्र १५ [५]. ४७४, ४७५, ४८३ [५], ४६१ और ५२५ [३] । आगे जाकर सूत्र ६०६ में तो स्पष्टतया उन सात नयों का निर्देश इस प्रकार कर दिया गया है ---
"से किं तं णए ? सत्त मूलणया पण्णत्ता । तं जहा-णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढे एवंभूते ।"
यहाँ संग्रह और व्यवहार इन दो नयों का क्रमव्यत्यय भी हुआ है। आगे गाथा १३७ में इसी क्रम से प्रथमतः संग्रह नय के लक्षण का और तत्पश्चात् व्यवहारनय के लक्षण का निर्देश है।
षट्खण्डागम में सर्वत्र नैगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द-यही क्रम पांच नयों के उल्लेख का रहा है । ३. १० ख० सूत्र ४,१,६१ व ६४ आदि। ४. अनु० सूत्र १६ व १८ आदि ।
२६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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