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किया गया है ।
(२) दोनों ग्रन्थों का उद्गम बारहवें दृष्टिवाद अंग से हुआ है, इतना तो दोनों ग्रन्थों से स्पष्ट है । परन्तु आगे जिस प्रकार उस दृष्टिवाद के अन्तर्गत दूसरे अग्रायणीयपूर्व तथा उसके पाँचवें 'वस्तु' अधिकार के अन्तर्गत चौथे कर्मप्रकृतिप्राभृत के साथ षट्खण्डागम में उस परम्परा hat प्रकट किया गया है और तदनुसार ही आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि का उसके कर्ता के रूप में उल्लेख हुआ है उस प्रकार प्रज्ञापना में वह आगे की परम्परा दृष्टिगोचर नहीं होती । वहाँ दृष्टिवाद के अन्तर्गत उसके भेद-प्रभेदों में किस भेद व किस क्रम से आकर वह प्रज्ञापना कर्ता श्यामा तक आयी, इसे स्पष्ट नहीं किया गया। वहाँ तो कर्ता के रूप में श्यामार्य के नाम का उल्लेख भी नहीं है ।
श्यामार्य के कर्ता होने की कल्पना तो उन दो प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार से की गई है जिनमें श्यामार्य के द्वारा श्रुत-सागर से निकालकर शिष्यगण के लिए श्रुत-रत्न के दिये जाने का उल्लेख है । इस प्रकार से श्यामार्य को प्रज्ञापना का कर्ता मानना काल्पनिक है । कारण यह है कि प्रथम तो वे दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, मूल ग्रन्थ की नहीं हैं । दूसरे, उन गाथाओं में भी उनके द्वारा किसी श्रुत-रत्न के देने का ही तो उल्लेख किया गया है । पर वह श्रुत-रत्न प्रज्ञापना है, यह कैसे समझा जाए ? वह दूसरा भी कोई ग्रन्थ हो सकता है । इसके अतिरिक्त वे गाथाएँ टीकाकार हरिभद्रसूरि के पूर्व कब और किसके द्वारा ग्रन्थ में योजित की गई हैं, यह भी अन्वेषणीय है ।
(३) प्रज्ञापना को षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती ठहराते हुए जिन धर्मसागरीय और खरतरगच्छीय पट्टावलियों के आधार से तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य को पर्यायवाची 'कालक' शब्द के आश्रय से श्यामाचार्य मान लिया गया है तथा उसका रचनाकाल वीरनिर्वाण ३३५-३७६ ( ईसवी पूर्व ७६-३८) बतलाया गया है उन पट्टावलियों में प्रामाणिकता नहीं है । कारण यह है कि उनका लेखनकाल निश्चित नहीं है तथा उनमें परस्पर विरोध भी है । जब तक कोई ठोस प्रमाण न हो, 'कालक' का पर्यायवाची होने से कालकाचार्य को श्यामाचार्य मान लेना प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता है ।
(४) उत्तराध्ययन के आधार से भी प्रज्ञापना का रचनाकाल निश्चित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि विद्वान् उत्तराध्ययन को किसी एक आचार्य की कृति नहीं मानते हैं, इसे उस प्रस्तावना के लेखक भी स्वीकार करते हैं । "
(५) प्रज्ञापना की अपेक्षा षट्खण्डागम में विषय का विवेचन क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित है, प्रज्ञापना में वह अव्यवस्थित, असम्बद्ध व क्रमविहीन है । इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम में विषय का वर्गीकरण कर उसे अनुयोगद्वारों में विभक्त किया गया है और निक्षेप आदि के आश्रय से प्रतिपाद्य विषय का विशद विवेचन किया गया है । इन कारणों से षट्खण्डागम को जो प्रज्ञापना से पश्चात्कालवर्ती ठहराया गया है उचित नहीं है । ऐसा क्यों हुआ, इसे हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं ।
उस प्रस्तावना के लेखकों ने स्वयं भी अपना यह अभिप्राय प्रकट किया है कि केवल
१. प्रज्ञापना की गुजराती प्रस्तावना पृ० २२-२५ व नन्दिसूत्र की प्रस्तावना पृ० २१ २. वही, प्रस्तावना पृ० २५
१६ / पटण्डागम-परि
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