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हैं । आगे जाकर उसके पदों का प्रमाण एक लाख चवालीस हजार बतलाया गया है (नन्दिसूत्र १०)। धवला में उसके पदों का प्रमाण एक लाख चौंसठ हजार बतलाया गया है। (पु०१, पृ० १०१)
धवला में आगे मध्यम पद के रूप में प्रसिद्ध उन पदों में प्रत्येक पद के अक्षरों का प्रमाण एक प्राचीन गाथा को उद्धृत कर उसके आश्रय से सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४,८३,०७,८८८) निर्दिष्ट है। (पु० १३, पृ० २६६)
उपर्युक्त समवायांग के लक्षण से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के द्वारा अर्थरूप से प्ररूपित और गौतमादि गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित प्रकृत समवायांग में परीत वाचनाएँ और संख्यात अनुयोगद्वार आदि रहे हैं। उसके पदों का प्रमाण एक लाख चवालीस हजार (१४४०००) रहा है। ____ अब विचार करने की बात है कि जब मूल अंगग्रन्थों में अनुयोगद्वार रहे हैं तब षट्खण्डागम में अनुयोगद्वारों का निर्देश करके प्रतिपाद्य विषय का वर्गीकरण करते हुए यदि कृति व वेदना आदि शब्दों की व्याख्या निक्षेप व नयों के आधार से की गई है तो इससे उसकी प्राचीनता कैसे समाप्त हो जाती है ?
प्रज्ञापना में यदि वैसे अनुयोगद्वार नहीं हैं तथा वहाँ यदि नय व निक्षेप आदि के आश्रय से विशिष्ट शब्दों की व्याख्या नहीं की गई है तो यह उसकी प्राचीनता का साधक नहीं हो सकता । किन्तु वहाँ अनुयोगद्वार आदि न होने के अन्य कारण हो सकते हैं, जिन्हें आगे स्पष्ट किया जाएगा।
भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट और गोतमादि गणधरों द्वारा ग्रथित उसी मौलिक श्रुत की परम्परा के आश्रय से षट्खण्डागम और प्रज्ञापना दोनों ग्रन्थों की रचना हुई है। इसका उल्लेख दोनों ग्रन्थों में किया गया है। यथा
बारहवें दृष्टिवाद अंग का चौथा अर्थाधिकार 'पूर्वगत' है। वह उत्पादादि के भेद से चौदह प्रकार का है। उनमें दूसरा अग्रायणीय पूर्व है। उसके अन्तर्गत चौदह 'वस्तु' अधिकारों में पांचवां चयनलब्धि अधिकार है। उसके अन्तर्गत बीस प्राभृतों में चौथा 'कर्मप्रकृतिप्राभूत' है। वह अविच्छिन्न परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुफा में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को पूर्णतया समर्पित कर दिया। आचार्य भूतबलि ने श्रुत-नदी के प्रवाह के व्युच्छिन्न हो जाने के भय से उस महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का उपसंहार कर छह खण्ड किये-षट्खण्ड स्वरूप प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना की। यह षट्खण्डागम की रचना का इतिहास है।
उधर प्रज्ञापना में इस सम्बन्ध में इतना मात्र कहा गया है कि भगवान् जिनेन्द्र ने समस्त भावों की प्रज्ञापना दिखलायी है । भगवान् ने दृष्टिवाद से निकले हुए श्रुत-रत्नस्वरूप इस
१. यह केवल समवायांग के ही स्वरूप के प्रसंग में नहीं कहा गया है, अन्य आचारादि अंगों में
भी इसी प्रकार परीत वाचनाओं और संख्यात अनुयोगद्वारों आदि के रहने का उल्लेख
है । देखिए नन्दिसूत्र ८७-६८ २. १० ख० सूत्र ४,१,४५ (पु० ६, पृ० १३४) तथा धवला पु० ६, पृ० १२६-३४ में ग्रन्थ
कर्ता की प्ररूपणा । धवला पु० १. पृ० ६०-७६ व आगे पृ० १२३-३० भी द्रष्टव्य हैं।
षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४६
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