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में जहाँ उस अल्पबहुत्व के स्थान ७७ (प्रथम सूत्रांक को छोड़कर) हैं वहां प्रज्ञापना में वे ६८ है। इनमें जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, उस अल्पबहुत्व के सैतालीस स्थान (१६+ ४+२७) सर्वथा समान हैं। प्रज्ञापना में जो कुछ स्थान अधिक हैं उनकी अधिकता के कारणों का निर्देश भी ऊपर किया जा चुका है।
६. १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाएँ हैं। उनमें प्रथम 'प्रकृति समुत्कीर्तन' चूलिका है। इसमें ज्ञानावरणीयादि आठ मूलप्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है।' (सूत्र ३-४६ पु० ६)
प्रज्ञापना में २३ वें पद के अन्तर्गत जो दो उद्देश हैं उनमें से दूसरे उद्देश में मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों का उल्लेख किया गया है । (सूत्र १६८७-६६)
उन मूल और उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान रूप से ही किया गया है।
१०. ष०ख० में उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में जो छठी चूलिका है उसमें इन मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति की तथा आगे की सातवीं चूलिका में जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। (पु०६)
प्रज्ञापना में इस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा उपयुक्त २३वें पद के अन्तर्गत दूसरे उद्देश में साथ-साथ की गई है । (सूत्र १६६७-१७०४)
दोनों ग्रन्थों में स्थिति की वह प्ररूपणा अपनी अपनी पद्धति से प्रायः समान है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ समान स्थितिवाले कर्मों की स्थिति का उल्लेख एक साथ किया गया है वहाँ प्रज्ञापना में उसका उल्लेख पृथक्-पृथक् ज्ञानावरणदि के क्रम से किया गया है । यथा
(१) "पंचण्हं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणावरणीयाणं असादावेदणीयं पंचण्हं अंतराइयाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो तीसं सागरोवम कोडाकोडीओ। तिण्णि सहसाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेओ"।
-सूत्र १, ६-३, ४-६ __इसी प्रकार जघन्य स्थिति प्ररूपणा भी वहाँ उसी पद्धति से १,६-७, ३-५ सूत्रों में की गई है।
__ "णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तो उक्कोसेणं तीसं सागरोकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो।" ।
-प्रज्ञापना सूत्र १६९७ (२) पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के लिए देखिए ष० ख० सूत्र १, ६-७,६-८ और प्रज्ञापना सूत्र १६६८ [१] । ___इसी प्रकार से दोनों ग्रन्थों में कर्मों की उस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा आगे पीछे समान रूप में की गई है।
११. १० ख० में जीवस्थान की उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में अन्तिम ‘गति-आगति' चूलिका
१. इन मूल-उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख आगे ष०ख० के पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत
'प्रकृति' अनुयोगद्वार में थोड़ी-सी विशेषता के साथ पुनः किया गया है । (पु० १३) २. निषेकक्रम का विचार ष० ख० में आगे वेदनाकालविधान में किया गया है । सूत्र ४,२,६,
१०१-१० (पु० ११)
१४०/ षट्खण्डागम-परिशीलन
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