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है कि वह यद्यपि मूल सूत्रादर्श सभी प्रतियों में उपलब्ध है, किन्तु उसकी व्याख्या हरिभद्र सूरि और मलयगिरि सूरि के द्वारा अपनी अपनी वृत्ति में नहीं की गई है। तत्पश्चात् सिद्धों के अभिनन्दनपूर्वक महावीर जिनेन्द्र की वन्दना की गई है । आगे कहा गया है कि 'भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा समस्त भावों की प्रज्ञापना दिखलायी गई है। दृष्टिवाद से निकले हुए इस अध्ययन का वर्णन जिस प्रकार से भगवान् ने किया है उसी प्रकार से मैं भी उसका वर्णन करूँगा' (गाथा १-३) । आगे ग्रन्थकार ने उसमें यथाक्रम से चर्चित इन छत्तीस पदों का निर्देश किया है
(१) प्रज्ञापना, (२) स्थान, (३) बहुवक्तव्य, (४) स्थिति, (५) विशेष, (६) व्युत्क्रान्ति, (७) उच्छ्वास, (८) संज्ञा, (8) योनि, (१०) चरम, (११) भाषा, (१२) शरीर, (१३) परिणाम, (१४) कषाय, (१५) इन्द्रिय, (१६) प्रयोग, (१७) लेश्या, (१८) कायस्थिति, (१६) सम्यक्त्व, (२०) अन्तःक्रिया, (२१) अवगाहना संस्थान, (२२) क्रिया, (२३) कर्म, (२४) कर्मबन्धक, (२५) कर्मवेदक, (२६) वेदबन्धक, (२७) आहार, (२८) वेदवेदक. (२६) उपयोग, (३०) स्पर्शन, (३१) संज्ञी, (३२) संयम, (३३) अवधि, (३४) प्रवीचार, (३५) वेदना और (३६) समुद्घात (४-७) ।
आगे वहाँ यथाक्रम से उन ३६ पदों के अन्तर्गत विषय का विवेचन किया गया है। परन्तु विवक्षित पद में वर्णनीय विषय का दिग्दर्शन कराते हुए उसके अन्तर्गत भेद-प्रभेदों का जिस क्रम से उल्लेख किया गया है उनकी प्ररूपणा में कहीं-कहीं क्रमभंग भी हुआ है ।' इसका कारण उन भेद-प्रभेदों की अल्पवर्णनीयता व बहुवर्णनीयता रहा है। तदनुसार निर्दिष्ट क्रम की उपेक्षा करके वहाँ कहीं-कहीं अल्पवर्णनीय की प्ररूपणा पूर्व में की गई है और तत्पश्चात् बहुवर्णनीय की प्ररूपणा की गई है। यथा___ सूत्र ३ में प्रज्ञापना के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--जीव-प्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना । इनमें अल्पवर्णनीय होने से प्रथमतः अजीव-प्रज्ञापना की प्ररूपणा की गई है (सूत्र ४-१३) और तत्पश्चात् जीव-प्रज्ञापना की प्ररूपणा है (१४-१४७)। इसी प्रकार रूपी अजीवप्ररूपणा (६-१३) और अरूपी अजीवप्ररूपणा (५) में भी क्रम का भंग हुआ है। आगे और भी कितने ही ऐसे स्थल हैं जहाँ क्रमभंग हुआ है।
___ यह विशेष स्मरणीय है कि ष० ख० और प्रज्ञापना दोनों ही ग्रन्थ लक्षणप्रधान नहीं रहे हैं, उनमें विवक्षित किसी विषय के स्वरूप को न दिखलाकर केवल उससे सम्बन्धित अनुयोगद्वारों अथवा भेद-प्रभेदों का ही उल्लेख है ।
प्रज्ञापना में विवक्षित विषय की प्ररूपणा गौतम के प्रश्न पर भगवान् (महावीर) के द्वारा किये गये उसके समाधान के रूप में की गई है। पर उसके प्रथम पद 'प्रज्ञापन' में वह
१. क्रमभंग की यह पद्धति कहीं ष० ख० में भी देखी जाती है, पर वहां उसकी सूचना कर
दी गई है। जैसे-जा सा कम्मपयडी णाम सा थप्पा (सूत्र ५,५,१६)। जा सा थप्पा कम्मपयडी णाम सा अट्ठविहा–णाणावरणीय कम्मपयडी ...(सूत्र ५.५, १६)। सूत्र ५,५,१६ की व्याख्या में धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है—'स्थाप्या। कुदो ? बहुवण्णणिज्जत्तादो।' पु० १३, पृ० २०४ । आगे सूत्र ५,६,१० व २४; ५,६,२७ व ३८; ५,६,२६ व ३२ तथा ५,६,३६ व ६४ आदि ।
षट्खण्डागम की अन्य प्रन्यों से तुलना / २२६
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