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सम्बन्धि वस्त्वन्तरम्, तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । कधं मणस्स माणववए सो ? 'एए छच्च समाणा' त्ति विहिददीहत्तादो । अथवा वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतत्रिकालसम्बन्धिनमथं जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति सूत्रार्थो व्याख्येयः ।"
-धवला पु० १३, पृ० ३३७ दोनों ग्रन्थों में आगे उस ऋजुमतिमनःपर्यय के विषय की भी प्ररूपणा इस प्रकार की गई है, जो शब्दशः समान है___ "कालदो जहण्णेण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि । उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि। जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि । खेत्तदो ताव जहण्णेण गाउवपुधत्तं, उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भंतरदो णो बहिद्धा।"
-ष०ख० सूत्र ५,५,६५-६८ "कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वि-त्रीणि, उत्कर्षेण सप्ताष्टानि भवग्ग्रहणानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । क्षेत्रतो जघन्येन गव्यूतिपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं न बहिः, उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं न बहिः।"
--तवा० १,२३,६ (प० ५८-५६) दोनों ग्रन्थों में जिस प्रकार समान रूप में ऋजमतिमनःपर्ययज्ञान के भेदों और विषय की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आगे विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान के भेदों और विषय की भी प्ररूपणा समान रूप में की गई है । यथा
"जंतं विउलमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं तं छन्विहं-उज्जुगमणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं कायगदं जाणदि ।” इत्यादि
--ष०ख०, सूत्र ५,५,७०-७७ "द्वितीयः षोढा ऋजु-वक्रमनोवाक्कायभेदात् ।" इत्यादि
--तत्त्वार्थवार्तिक १,२३,१० (पृ० ५६) १२. (क) त० वा० में 'शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य' इत्यादि सूत्र (५-२४) की व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में बन्ध के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—विस्रसाबन्ध और प्रयोगबन्ध । इनमें वैस्रसिकबन्ध आदिमान् और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। इनमें आदिमान् वैस्रसिकबन्ध के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जो बन्ध स्निग्ध और रूक्ष गुणों के निमित्त से विद्युत्, उल्का, जलधारा, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि को विषय करनेवाला है उसका नाम आदिमान् वैस्रसिक बन्ध है।
--त०वा० ५,२४,१०-११ ०ख० में वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्ध के प्रसंग में विस्रसाबन्ध के सादि विस्रसाबन्ध और अनादि विस्रसाबन्ध ये ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। (सूत्र ५,६, २८; पु० १४)
आगे सादिविस्रसाबन्ध के स्वरूप को प्रकट करते हुए यह सूत्र कहा गया है
"से तं बंधणपरिणामं पप्प से अब्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा धूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा खेत्तं पप्प कालं पप्प उडु पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अंगमलप्पहुदीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्वो सादियबंधोणाम।"
-सूत्र ५,६,३७ (पु० १४) ऊपर त० वा० में वस्रसिक बन्ध के उन दो भेदों का निर्देश करते हुए जो आदिमान् (सादि) वससिकबन्ध का लक्षण प्रकट किया गया है वह सम्भवतः इस ष०ख० के सूत्र के माधय से ही प्रकट किया गया है । बिशेष इतना है कि ष०ख० में जहाँ इस बन्ध के रूप से
२१६ / षट्सण्डागम-परिशीलन
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