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द्वि-प्रसंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठ चोट्स भागा या देसूणा । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छ चोट्स भागा वा देसूणा । पमत्त संजदप्पहुडि जाव प्रजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा ।" —सूत्र १, ४,२-१० ( पु० ४) 'जीवसमास' में इसी स्पर्शनक्षेत्र के प्रमाण को डेढ गाथा में इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-
मिच्छेहि सव्वलोओ सासण-मिस्सेहि अजय देसेहि । पुट्ठा चउदस भागा बारस अदृट्ठ छच्चे व ॥ सेसेहऽख भागो फुसिओ लोगो सजोगिकेवलिहि ।
- जीवसमास, गाथा १६५-६६
इसी पद्धति से आगे काल, अन्तर और भाव की भी प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में क्रम से की गई है। विशेषता वही रही है कि ष० ख० में जहाँ वह प्ररूपणा प्रश्नोत्तर के साथ पृथक्पृथक् रूप से की जाने के कारण अधिक विस्तृत हुई है वहाँ वह बहुत कुछ संक्षिप्त रही है ।
ऐसा होते हुए भी, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, उन गति आदि चौदह मार्गंणाओं के प्रसंग में 'जीवसमास' में ष०ख० की अपेक्षा अन्य प्रासंगिक विषयों को भी थोड़ी-सी चर्चा हुई है, जिसका विवेचन ष० ख० में नहीं मिलता है ।
इतना विशेष है कि दोनों ग्रन्थों में प्रतिपाद्य विषय के विवेचन की पद्धति और क्रम के समान होने पर भी ष० ख० में जहाँ उक्त आठों अनुयोगद्वारों में यथाक्रम से सभी मार्गणाओं का आश्रय लिया गया है वहाँ 'जीवसमास' में उन अनुयोगद्वारों के प्रसंग में प्रारम्भ में एक-दो मार्गणाओं के आश्रय से विवक्षित विषय को स्पष्ट करके आगे कुशलबुद्धि जनों से स्वयं वहां अनुक्त विषय के जान लेने की प्रेरणा कर दी गई है । जैसे कालानुगम के प्रसंग में वहाँ प्रतिपाद्य विषय का कुछ विवेचन करके आगे यह सूचना की गई है --
एत्थ य जीवसमासे अणुमज्जिय सुहुम - निउण मइकुसले । सुहमं कालविभागं विमएज्ज सुयम्मि उवजुत्तो ||२४||
अभिप्राय यही है कि यहाँ 'जीवसमास' में जो प्रसंगप्राप्त सूक्ष्मकालविभाग की चर्चा नहीं की गई है उसका अन्वेषण श्रुत में उपयुक्त होकर निपुणमतियों को अनुमान से स्वयं करना चाहिए ।
८. ष० ख० में दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत जो ग्यारह अनुयोगद्वार हैं उनमें अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है । वहाँ यथाक्रम से गति- इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है । उस प्रसंग में वहाँ गतिमार्गणा में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः पाँच गतियों का उल्लेख है और उनमें उस अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट किया गया है—
"अप्पा बहुगागमेण गदियाणुवादेण पंच गदी समासेण । सव्वत्थोवा मणुसा । णेरइया असंखेज्जगुणा । देवा असंखेज्जगुणा । सिद्धा अनंतगुणा । तिरिक्खा अणंतगुणा । "
- सूत्र २, ११, १-६ (पु० ७) जीवसमास में यही अल्पबहुत्व प्रायः उन्हीं शब्दों में इस प्रकार उपलब्ध होता है२२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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