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आ० भट्टाकलंक देव ने ष०ख० का आश्रय लेकर गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में सूत्रोक्त सत्-संख्या आदि का विशेष विचार नहीं किया है। उन्होंने वहां केवल सत्-संख्या आदि के पूर्वापरक्रम का विचार किया है । ७. षट्खण्डागम और आचारांग
दिगम्बर परम्परा के अनुसार यद्यपि वर्तमान में गौतम गणधर द्वारा ग्रथित अंगों व पूर्वो का लोप हो गया है, पर श्वेताम्बर परम्परा में आज भी आचारादि ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। वे वीरनिर्वाण के पश्चात् ६८० वर्ष के आस-पास वलभी में आचार्य देवधि गणि के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुई वाचना में साधुसमुदाय की स्मृति के आधार पर पुस्तकारूढ़ किये गये हैं।'
बारहवें दृष्टिवाद अंग का लोप हुआ श्वे० परम्परा में भी माना जाता है।।
प्रकृत आचारांग उन पुस्तकारूढ़ किये गये ग्यारह अंगों में प्रथम है । वह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध इन नौ अध्ययनों में विभक्त है-(१) शस्त्रपरिज्ञा, (२) लोकविजय, (३) शीतोष्णीय, (४) सम्यक्त्व, (५) लोकसार, (६) धूत, (७) महापरिज्ञा, (८) विमोक्ष और (६) उपधानश्रुत । इन नौ अध्ययनोंस्वरूप उस प्रथम श्रुतस्कन्ध को नवब्रह्मचर्यमय कहा गया है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में, जिसे आचारान कहा जाता है, पाँच चूलिकाएँ हैं। उनमें से प्रथम चूलिका में सात अध्ययन हैं--(१) पिण्डैषणा, (२) शय्यैषणा, (३) ईर्या, (४) भाषाजात, (५) वस्त्रैषणा, (६) पात्रषणा और (७) अवग्रह । दूसरी चूलिका 'सप्ततिका' में भी सात अध्ययन हैं । तीसरी चूलिका का नाम भावना अध्ययन है । विमुक्ति नाम की चौथी चूलिका में विमुक्ति अध्ययन है। पाँचवी चूलिका का नाम निशीथ है, जो एक पृथक् ग्रन्थ के रूप में निबद्ध है।
संक्षेप में इतना परिचय करा देने के पश्चात् अब हम यह देखना चाहेंगे कि इसकी क्या कुछ थोड़ी-बहुत समानता प्रस्तुत षट्खण्डागम से है। दोनों में जो थोड़ी-सी समानता दिखती है वह इस प्रकार है
ष०ख० में पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत जो प्रकृति अनुयोगद्वार है उसमें ज्ञानावरणीय आदि आठ मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है। उसमें मनःपर्ययज्ञानावरणीय के प्रसंग में मनःपर्ययज्ञान का निरूपण करते हुए उसके ऋजुमतिमन:पर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय इन दो भेदों का निर्देश किया गया है। उनमें ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय दोनों के विषय विशेष का पृथक्-पृथक् विचार करते हुए कहा गया है कि ऋजुमतिमनःपर्यय अपने व दूसरे व्यक्त मनवाले जीवों के मनोगत अर्थों को जानता है, अव्यक्त मनवालों के मनोगत अभिप्राय को नहीं जानता है। पर विपुलमतिमनःपर्यय व्यक्त मनवाले
१. यद्यपि इसके पूर्व एक वाचना वीरनि० के पश्चात्, लगभग १६० वर्ष के बाद, पाटलिपुत्र
में और तत्पश्चात् दूसरी वाचना वीरनि० के लगभग ८४० वर्ष बाद मथुरा में स्कन्दिलाचार्य के तत्त्वावधान में भी सम्पन्न हुई है। ठीक इसी समय एक अन्य वाचना वलभी में आचार्य नागार्जुन के तत्त्वावधान में भी सम्पन्न हुई है, पर इन वाचनाओं में व्यवस्थित रूप से उन्हें पुस्तकारूढ़ नहीं किया जा सका। इसका कारण सम्भवतः कुछ पारस्परिक मतभेद रहा है।
२२० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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