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अपर्याप्तकों के क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सम्भव हैं ।"
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि में की गई इस प्ररूपणा का आधार ष० ख० का उपर्युक्त प्रसंग रहा है।
२. तत्त्वार्थसूत्र के उक्त सूत्र (१-७) की समस्त व्याख्या का आधार यही ष०० रहा है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जिस पद्धति से गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में उस सम्यग्दर्शन के स्वामित्व आदि का विचार किया गया है तदनुसार वह विभिन्न प्रसंगों में किया गया है । जैसे—
स० सि० में इसी सूत्र की व्याख्या करते हुए 'साधन' के प्रसंग में कहा गया कि चौथी पृथिवी के पूर्व ( प्रथम तीन पृथिवियों में ) नारकियों में किन्हीं नारकियों के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का बाह्य साधन (कारण) जातिस्मरण, धर्मश्रवण अथवा वेदना का अभिभव है । किन्तु आगे चौथी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों के उसकी उत्पत्ति का कारण धर्मश्रवण सम्भव नहीं है, शेष जातिस्मरण और वेदनाभिभव ये दो ही कारण सम्भव हैं । "
ष० ख० में उस सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारणों की प्ररूपणा जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में से अतिम 'गति - आगति' चूलिका के प्रसंग में विस्तार से की गई है ।
सर्वार्थसिद्धि का उपर्युक्त प्रसंग उस गति आगति चूलिका के इन सूत्रों पर आधारित है— 'रइया मिच्छा इट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति ? तीहि कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पादेति । केइ जाइस्सरा, केई सोऊण, कई वेदणाहिभूदा । एवं तिसु उवरिमासु पुढवीसु रइया । चदुसु हेट्टिमासु पुढवीसु णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति ? दोहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति । केई जाइस्सरा केई वेयणाहिभूदा ।'
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- ष० ख०, सूत्र १,६-६, ६-१२ दोनों ग्रन्थगत सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के उन कारणों की प्ररूपणा सर्वथा समान है । विशेषता यही है कि ष० ख० में वह प्ररूपणा जहाँ आगम पद्धति के अनुसार प्रश्नोत्तर के साथ की गई है वहाँ स० सि० में वही प्ररूपणा प्रश्नोत्तर के बिना संक्षेप में कर दी गई है ।
दोनों ग्रन्थों में आगे सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के उन कारणों की प्ररूपणा अपनी-अपनी पद्धति से समान रूप में क्रम से तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति में भी की गई है । 3
३. दोनों ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन की स्थिति का प्रसंग भी देखिए
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ष० ख० में दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत 'एक जीव की अपेक्षा कालानुगम' अनुयोगद्वार में सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में सामान्य सम्यग्दृष्टियों और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों आदि के जघन्य और उत्कृष्ट काल की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है—
“सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्त । उक् छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । खइयसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेपाणि । वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो
१. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ६
२. वही, पृ० ११
३. ष० ख० सूत्र, तिर्यंचगति १, ६-६, २१-२२; मनुष्यगति १, ६- ६, २६-३०; देवगति १, ε-६,३६-३७ (पु० ६) तथा स०सि० पृ० ११-१२
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०५
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