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लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। छ चोद्दस भागा वा देसूणा । पमतसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा।"
-ष० ख० सूत्र १,४, १-१० "स्पर्शनमुच्यते। तद् द्विविधम्-सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः । सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभाग: अष्टौ द्वादश वा चतुर्दशभागा देशोनाः सम्यंग्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ वा चतुर्दश भागा देशोनाः । संयतासंयतैलॊकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दश भागा वा देशोनाः । प्रमत्तसंयतादीनामयोगकेवल्यन्तानां क्षेत्रवत स्पर्शनम् ।"
-स० सि०प्र० २३-२४ दोनों ग्रन्थों में गणस्थानों के आश्रित यह स्पर्शनप्ररूपणा भी शब्दशः समान है। विशेषता इतनी है कि ष० ख० में जहाँ अयोगिकेवली पर्यन्त प्रमत्तसंयतादिकों के और सयोगिकेवलियों के स्पर्शन की प्ररूपणा पृथक् रूप से की गई है (सूत्र ६-१०) वहाँ सर्वार्थसिद्धि में संक्षेप से यह निर्देश कर दिया गया है कि अयोगकेवली पर्यन्त प्रमत्तसंयतादिकों के स्पर्शन की प्ररूपणा क्षेत्र के समान है, उससे उसमें कुछ विशेषता नहीं है। इसीलिए सर्वार्थसिद्धि में उनके स्पर्शन की प्ररूपणा पृथक् से नहीं की गई है।
दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार की समानता आगे गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के प्रसंग में भी उपलब्ध होती है। ५. कालानुगम
कालविषयक प्ररूपणा भी दोनों ग्रन्थों में समान उपलब्ध होती है । जैसे
"कालाणुगमेण दुविहो णि सो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो। जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्दे सो-जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमो। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एग जीवं पडुच्च जहण्णण एगसमझो। उक्कस्सेण छजावलियारो।" -१० ख० सूत्र १, ५, १-८
"काल: प्रस्तूयते । स द्विविधः -सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवापेक्षया त्रयो भङ्गा-अनादिरपर्यवसानः अनादिसपर्यवसानः सादिसपर्यवसानश्चेति । तत्र सादिसपर्यवसानो जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवर्तों देशोनः । सासादनसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्ष या जघन्येनैकः समयः। उत्कर्षण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्ये नैकः समयः । उत्कर्षेण षडावलिकाः ।"
-स० सि०, पृ० ३१ आगे दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार की समानता सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि शेष गुणस्थानों और गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के प्रसंग में भी द्रष्टव्य है। ६. अन्तरानुगम
अन्तरविषयक प्ररूपणा में भी दोनों ग्रन्थों की समानता द्रष्टव्य है । यथा
२०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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