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को न प्रकट करके प्रथमतः नयविभाषणता के आश्रय से उन स्पर्शों में कौन नय किन स्पर्शों को स्वीकार करता है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि नंगमनय उन सभी स्पर्शों को स्वीकार करता है । व्यवहार और संग्रह ये दो नय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श को स्वीकार नहीं करते, शेष ग्यारह स्पर्शों को वे स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्र नय एकक्षेत्र स्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श को स्वीकार नहीं करता है । शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्श को स्वीकार करता है (५-८)।
यहाँ अवसरप्राप्त सूत्रोक्त तेरह स्पर्शों के अर्थ को स्पष्ट न करके नयविभाषणता के अनुसार कौन नय किन स्पर्शों को विषय करता है, यह प्ररूपणा उसके पूर्व क्यों की गई, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि 'निश्चये क्षिपतीति निक्षेपो नाम' इस निरुक्ति के अनुसार जो निश्चय में स्थापित करता है उसका नाम निक्षेप है । नयविभाषणता के बिना निक्षेप संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित जीवों को उन संशयादि से हटाकर निश्चय में स्थापित नहीं कर सकता है, इसीलिए पूर्व में नयविभाषणता की जा रही है।
विवक्षित नय अमुक स्पर्शों को क्यों विषय करते हैं, अन्य स्पर्शों को वे क्यों नहीं करते, इसका स्पष्टीकरण आगे 'धवला' के प्रसंग में किया जाएगा।
नामस्पर्श-इस प्रकार पूर्व में नय विभाषणता को कहके तत्पश्चात् पूर्वोक्त स्पर्शों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रथमत: अवसर प्राप्त नामस्पर्श के विषय में कहा गया है कि एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, एक जीव व एक अजीव, एक जीव व बहुत अजीव, बहुत जीव व एक अजीव और बहुत जीव व बहुत अजीव, इन आठ में जिसका 'स्पर्श' ऐसा नाम किया जाता है वह नामस्पर्श कहलाता है (8)।
स्थापनास्पर्श-काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकम, दन्तकर्म और भेंडकर्म इनमें तथा अक्ष व वराटक आदि अन्य भी जो इस प्रकार के हैं उनमें स्थापना के द्वारा 'यह स्पर्श है' इस प्रकार का जो अध्यारोप किया जाता है उसका नाम स्थापनास्पर्श है (१०)।
द्रव्यस्पर्श-एक द्रव्य जो दूसरे द्रव्य के द्वारा स्पर्श किया जाता है, इस सबको द्रव्यस्पर्श कहा गया है । अभिप्राय यह है कि एक पुद्गलद्रव्य का जो दूसरे पुद्गलद्रव्य के साथ संयोग अथवा समवाय होता है उसका नाम द्रव्यस्पर्श है। अथवा जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य इन दोनों का जो एकता के रूप में सम्बन्ध होता है उसे द्रव्यस्पर्श समझना चाहिए (११-१२)।।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से द्रव्य छह प्रकार का है। इनमें सत्त्व व प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा द्रव्य के रूप में परस्पर समानता है । अतः इनमें एक, दो, तीन आदि के संयोग या समवाय के रूप में जो स्पर्श होता है उस सब को नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यस्पर्श कहा गया है । यहाँ दो संयोगी आदि जो समस्त तिरेसठ (६ ।-१५+२०+१५+६+१=६३) भंग होते हैं उनका स्पष्टीकरण धवला में किया गया है। उस सबको आगे धवला के प्रसंग में स्पष्ट किया जाएगा।
एकक्षेत्रस्पर्श-एक आकाश प्रदेश में स्थित अनन्तानन्त पुदगलस्कन्धों का जो समवाय या संयोग के रूप में स्पर्श होता है उसे एक क्षेत्रस्पर्श कहते हैं (१३-१४)।
अनन्तरक्षेत्रस्पर्श-जो द्रव्य अनन्तर क्षेत्र से स्पर्श करता है उसे अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है (१५-१६)।
१०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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