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४. ष०ख० में जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ तथा वेदना व वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत कुछ अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध सात, इस प्रकार सोलह चूलिका नामक प्रकरण भी हैं। दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ वें अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के अन्त में 'महादण्डक' है। इसे भी धवलाकार ने चूलिका कहा है।
क० प्रा० में इस प्रकार की किसी चूलिका की योजना नहीं की गई है।
५. १० ख० में ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से सम्बद्ध बन्ध, उदय (वेदना) व बन्धनीय (वर्गणा) आदि की प्ररूपणा कुछ अनियत क्रम से की गई है।
क० प्रा० में प्रेयोद्वषविभक्ति, स्थितिविभक्ति व अनुभागविभक्ति आदि पन्द्रह अर्थाधिकारों के आश्रय से राग-द्वेषस्वरूप एक मात्र मोहनीय कर्म की व्यवस्थित व क्रमबद्ध प्ररूपणा की गई है।
६. १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान में ओघ और आदेश से चौदह गुणस्थानों व चौदह मार्गणाओं से विशेषित उन्हीं गुणस्थानों की सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः सुव्यवस्थित प्ररूपणा की गई है। __क० प्रा० में गुणस्थान और मार्गणाओं से सम्बन्धित इस प्रकार की प्ररूपणा उपलब्ध नहीं होती। अभिप्रायभेद __ दोनों ग्रन्थों में कहीं-कहीं प्रतिपाद्य विषय के व्याख्यान में कुछ मतभेद भी रहा दिखता है । जैसे
७. १० ख० में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रसंग में यह कहा गया है कि ज्ञानावरणादि सभी कर्मों की स्थिति को जीव जब अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है (सूत्र १, ६-१, ३)। ___क० प्रा० में सम्यक्त्व की उत्पत्ति -दर्शनमोह की उपशामना–के प्रसंग में इस प्रकार के स्थितिबन्ध का प्रमाण मूल व चूर्णि में कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
८. ष० ख० में क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रसंग में यह कहा गया है कि पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ-जिन क्षेत्र व काल विशेषों में-जिन, केवली व तीर्थकर सम्भव हैं वहाँ उनके पादमूल में जीव दर्शनमोहनीय की क्षपणा प्रारम्भ करता है (१, ६-८,१०-११)। ___ क० प्रा० में मात्र 'कर्मभूमिज' का उल्लेख किया गया है । परन्तु जिन, केवली तीर्थंकर का उल्लेख वहाँ देखने में नहीं आया।
६.१० ख० में इसी प्रसंग में मनुष्यगति का स्पष्ट डल्लेख नहीं किया गया, जबकि क० प्रा० .(गा० ११०) में उसका स्पष्ट उल्लेख देखा जाता है। ___यह अवश्य है कि धवलाकार ने सूत्र में निर्दिष्ट 'कर्मभूमि' को उपचार से कर्मभूमिजात मनुष्य की संज्ञा मानी है, यह पूर्व में स्पष्ट ही किया जा चुका है।
ऊपर जो षट्खण्डागम से कषायप्राभूत के पूर्ववर्ती होने की सम्भावना व्यक्त की गई है वह ऐसी ही कुछ विशेषताओं को देखते हुए की है। ___ यह भी ध्यातव्य है कि पेज्जदोसपाहुड (कषायप्राभृत) अविच्छिन्न परम्परा से आता हुआ गुणधर भट्टारक को प्राप्त हुआ व उन्होंने १६००० पद प्रमाण उस कषायप्राभूत का १८०
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों तुलना / १४६
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