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कहीं उपलब्ध नहीं होता।' साथ ही वहाँ व्यवहार नय का उल्लेख पूर्व में और संग्रह मय का उल्लेख उसके पीछे किया गया है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा यहाँ इन दो नयों के विषय में क्रम-भेद भी हुआ है।
श्वे० सम्प्रदाय में भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार प्रथमत: नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच नयों का नामनिर्देश करके तत्पश्चात् आद्य नय के दो और शब्द नय के तीन भेद प्रकट किये गये हैं।
इसे भाष्य में स्पष्ट करते हुए 'आद्य' से नैगमनय को ग्रहण कर उसके देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी इन दो भेदों का तथा शब्द के साम्प्रत, समभिरूट और एवंभूत इन तीन भेदों का निर्देश किया गया है।
१०. तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में जीवतत्त्व का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम जीव के. निज तत्त्वस्वरूप औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक इन पाँच भावों का उल्लेख किया गया है तथा आगे क्रम से उनके दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेदों को भी स्पष्ट किया गया है।
षट्खण्डागम में जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में सातवाँ एक स्वतन्त्र भावानुयोगद्वार है । उसमें ओघ और आदेश की अपेक्षा उन भावों की प्ररूपणा पृथक्पृथक् विस्तार से की गई है । ओघ से जैसे-मिथ्यादृष्टि को औदयिक, सासादन सम्यग्दृष्टि को पारिणामिक, सम्यग्मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक, असंयम को औदयिक, संयमासंयम आदि तीन को क्षायोपशमिक, चार उपशामकों को औपशमिक तथा चार क्षपकों और सयोगअयोग केवलियों को क्षायिक भाव कहा गया है। __इसी प्रकार से आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में भी उन भावों की प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकार प० ख० के उस भावानुयोगद्वार में पृथक्-पृथक् एक-एक भाव को लेकर विशदता की दृष्टि से प्रश्नोत्तर शैली में जिन भावों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है वे सभी भाव संक्षेप में तत्त्वार्थसूत्र के उन सूत्रों (२,१-७) में अन्तर्भूत हैं।।
१. अपवाद के रूप में यह एक सूत्र उपलब्ध है- सद्दादओ णामकदि भावकदि इच्छंति ॥
-५० (पु. ६)। यहाँ सूत्र में प्रयुक्त 'सद्दादओ' विचारणीय है। इसके पूर्व यदि शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीन नयों का कहीं उल्लेख कर दिया गया होता तो 'सद्दादओ' (शब्दादयः) यह कहना संगत होता । 'सद्दादओ' में आदि शब्द से किन का ग्रहण अभिप्रेत है, यह भी स्पष्ट नहीं है। धवला में भी 'तिसु सद्दणएसु णामकदी वि जुज्जदे' इतना मात्र कहा गया है, उन
तीन का स्पष्टीकरण वहाँ भी नहीं किया गया है । २. नगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्दा नयाः । आद्य-शब्दौ द्वित्रिभेदौ । त० सूत्र १, ३४-३५ ३. त० सूत्र २,१-७ ४. षट्खण्डागम (पु० ५) सूत्र १,७,१-६ (क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार
भी द्रष्टव्य है-पु० ७, पृ० २५-११३)
षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / १६७
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