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आइदुगुक्कोसो पज्जत्तजहन्नगेयरे य कमा। उक्कोस-जहन्नियरो असमत्तियरे असंख गुणो ॥ अमणाणुत्तर-गेविज्ज-भोगभूमिगय तइयतणुगेसु । कमसो असंखगुणिओ सेसेसु य जोगु उक्कोसा ॥
-क० प्र० बन्धनकरण १४-१६ दूसरी विशेषता यह भी रही है कि ष० ख० में सबके अन्त में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक सामान्य से ही उल्लेख किया गया है किन्तु क० प्र० में 'संज्ञी' के अन्तर्गत इन भेदों में भी पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है-अनुत्तरोपपाती देव, ग्रेवेयक देव, भोगभूमिज तिर्यग्मनुष्य, आहारकशरीरी और शेष देव-नारक-तिर्यग्-मनुष्य (देखिए ऊपर गाथा १६) । __ष० ख० में यहीं पर आगे योगस्थान प्ररूपणा में इन दस अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए उनके आश्रय से प्रसंगप्राप्त योगस्थानों की प्ररूपणा की गई है.---अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।'
क० प्र० में भी इन्हीं दस अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः उनकी प्ररूपणा की गई है।' दोनों ग्रन्थगत प्रारम्भ का प्रसंग इस प्रकार है
"जोगट्ठाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणि योगद्वाराणि णादव्वाणि भवंति । अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोपणिधा समयपरूवणा वढिपरू वणा अप्पाबहुए त्ति ।"
-सूत्र ४,२,४,१७५-७६ (पु० १०, पृ० ४३२ व ४३८) अविभाग-वग्ग-फड्डग-अंतर-ठाणं अणंतरोवणिहा। जोगे परंपरा-बुढि -समय-जीवप्प-बहुगं च ॥
--क० प्र० बन्धनकरण ५ दोनों ग्रन्थों में समयप्ररूपणा और वृद्धिप्ररूपणा इन दो अनुयोगद्वारों में क्रमव्यत्यय है।
दोनों ग्रन्थों में यह एक विशेषता रही है कि ष० ख० में जहाँ प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा प्रायः प्रश्नोत्तरशैली के अनुसार विस्तारपूर्वक गई है वहाँ क० प्र० में उसी की प्ररूपणा प्रश्नोत्तरशैली के बिना अतिशय संक्षेप में की गई है। उदाहरण के रूप में नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार (जीवकाण्ड-कर्मकाड) को लिया जा सकता है। वहाँ आचार्य नेमिचन्द्र ने ष० ख० व उसकी टीका धवला में प्ररूपित विषय को अतिशय संक्षेप में संगृहीत कर लिया है।
५. षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि
'सर्वार्थसिद्धि' यह आचार्य पूज्यपाद अपरनाम देवनन्दी (५-६ ठी शती) विरचित तत्वार्थ सूत्र की एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के अन्तर्गत सभी विषयों का विशदी
१. ष० ख० सूत्र ४,२,४,१७५-२१२ (पु० १०, पृ० ४३२-५०४) २. क० प्र० बन्धनकरण, गा० ५-१३
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६७
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