________________
णाणस्स सणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणियं । आउग-णामा-गोदं तहंतरायं च मूलाओ॥ पंच णव दोणि अट्ठावीसं चदुरो तहेव बादालं । दोणि य पच य भणिया पबडीओ उत्तरा चेव ।।
-मूला० १२, १८२-८६ आगे यथाक्रम से तत्त्वार्थसूत्र और मूलाचार में उपर्युक्त ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतियों के उत्तरभेद भी द्रष्टव्य हैं।-तत्त्वार्थसूत्र ८, ७-१३ व मूलाचार १२, १८७-६७
इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में क्रमबद्ध शब्दार्थविषयक समानता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मूलाचार के इस बन्धप्रसंग को सामने रखकर तत्त्वार्थसूत्र में बन्धविषयक प्ररूपणा की गई है। दोनों ग्रन्थों में केवलज्ञान का उत्पत्तिविषयक यह प्रसंग भी देखिएमोहक्षयाज् ज्ञान-दर्शनावरणान्त रायक्षयाच्च केवलम् । -तत्त्वार्थसूत्र १०-१
मोहस्सावरणाणं खयेण अह अन्तरायस्स य एव ।
उववज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं ॥ --मूला० १२-२७५ ४. षट्खण्डागम और कर्मप्रकृति
शिवशर्मसूरि विरचित कर्मप्रकृति एक महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है। शिवशर्म सूरि का समय विक्रम की ५वीं शताब्दी माना जाता है । यह प्राकृत गाथाओं में रचा गया है । समस्त गाथा संख्या उसकी ४७५ है । इसमें बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना इन आठ करणों की प्ररूपणा की गई है। अन्त में उदय और सत्त्व की भी प्ररूपणा की गई है। इसमें प्ररूपित अनेक विषय ऐसे हैं जो शब्द और अर्थ की अपेक्षा प्रस्तुत षट्खण्डागम से समानता रखते हैं । यथा
१. षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में से छठी चूलिका में उत्कृष्ट स्थिति और सातवीं चूलिका में जघन्य कर्मस्थिति की प्ररूपणा की गई है।
उधर कर्मप्रकृति में प्रथम बन्धनकरण के अन्तर्गत स्थितिबन्ध के प्रसंग में संक्षेप से उस उत्कृष्ट और जघन्य कर्मस्थिति की प्ररूपणा की गई है ।
दोनों ग्रन्थों में यह कर्मस्थिति की प्ररूपणा समान है। विशेषता यह है कि ष०ख० में जहाँ उसकी प्ररूपणा प्रक्रियाबद्ध व विस्तार से की गई है वहाँ क० प्र० में वह संक्षेप में की गई है। जैसे
१० ख० में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तराय इन बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को तीस कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण बतलाते हुए उनका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष प्रमाण कहा गया है। इस आबाधाकाल से हीन कर्मस्थिति प्रमाण उनका कर्मनिषेक निर्दिष्ट किया गया है।
क० प्र० में इन बीस प्रकृतियों की कर्म स्थिति की प्ररूपणा ........."विग्धावरणेसु
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० ११. २. सूत्र १, ६-६, ४-६ (पु० ६)।
षट्खण्डागम की अन्य प्रथों से तुलना / १८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org