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क० प्र० में संक्रम करण के अन्तर्गत प्रदेश संक्रम के सामान्य लक्षण, भेद, सादि-अनादि प्ररूपणा, उत्कृष्ट प्रदेश संक्रमस्वामी और जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामी इन पाँच अर्थाधिकारों में से चौथे ‘उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामी' अर्थाधिकार में उस गुणितकर्माशिक के लक्षणों को प्रकट किया गया है, जिस गुणितकर्माशिक के वह उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम होता है ।
उसके वे लक्षण इन दोनों ग्रन्थों में समान रूप में उपलब्ध होते हैं । विशेषता यह है कि ष० ख० में जहाँ उन लक्षणों को विशदतापूर्वक विस्तार से प्रकट किया गया है वहाँ क० प्र० में उनकी प्ररूपणा अतिशय संक्षेप में की गई है । यथा
० ख० में उसके लक्षणों को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो जीव साधिक दो हजार सागरोपमों से कम कर्मस्थितिकाल तक बादर पृथिवीकायिकों में रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए जिसके पर्याप्त भव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े रहे हैं, पर्याप्तकाल बहुत व अपर्याप्त काल थोड़े रहे हैं, जब-जब वह आयु को बाँधता है तब-तब तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा बाँधता है, उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्ट पद और अधस्तन स्थितियों के निषेक का जघन्य पद होता है, बहुत - बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है, बहुत बहुत बार अधिक संक्लेश परिणामों से युक्त होता है, इस प्रकार परिभ्रमण करके जो बादर त्रस पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ है ।"
इस प्रकार उसके इन थोड़े से लक्षणों को ष० ख० में जहाँ पृथक्-पृथक् आठ सूत्रों में निर्दिष्ट किया गया है वहाँ कर्मप्रकृति में उसके इन्हीं लक्षणों को संक्षेप में इन दो गाथाओं में प्रकट कर दिया गया है
जो बायरतसकालेणूणं कम्मट्ठिदि तु पुढवीए । (fx) पज्जत्तापज्जत्तगदी हेयरद्वासु ॥
बायर
जोग - कसाक्कोसी बहुसो निच्चमवि आउबंधं च । जोग जहणेणुवरिल्लठिइनिसेगं बहुं किच्चा ॥ "
दोनों ग्रन्थों में यहाँ केवल अर्थ से ही समानता नहीं है, शब्दों में भी बहुत कुछ समानता है ।
ष० ख० में आगे उसके कुछ अन्य लक्षणों को दिखलाते हुए पूर्वोक्त बादर त्रस जीवों में उत्पन्न होने पर वहाँ परिभ्रमण करते हुए भी 'पर्याप्त भव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े,' इत्यादि का निरूपण जिस प्रकार पूर्व में, बादर पृथिवीकायिकों के प्रसंग में, किया गया था उसी प्रकार इन बादर त्रस जीवों में परिभ्रमण के प्रसंग में भी उनका निरूपण उन्हीं सूत्रों में पुनः किया गया है।
कर्मप्रकृति के कर्ता को भी प्रसंग प्राप्त उन 'पर्याप्तभव अधिक' इत्यादि का निरूपण करना ‘बादरत्रसों' के प्रसंग में भी अभीष्ट रहा है, किन्तु उन्होंने अगली गाथा में संक्षेप से यह सूचना कर दी है कि बादर त्रसों में उत्पन्न होकर उसके - बादर त्रसकायस्थिति के काल तक इसी प्रकार से - 'पर्याप्तभव बहुत' इत्यादि प्रकार पूर्वोक्त पद्धति से - - भ्रमण करता
१. ष० ख० सूत्र ४,२, ४, ७-१४ (५० १० )
२. क० प्र० ( संक्रम क०) ७४-७५
३. ष० ख० सूत्र ४, २, ४, ८ - १४ और सूत्र १५ - २१ (५०१० )
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षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६१
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