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१६८, १६२, २८८, ३३६ और ३८४ भेदों को ज्ञातव्य कह दिया गया है।
ये सब भेद यथासम्भव उसके भेदों, कारणों और विषयभूत बहु-बहुविध आदि १२ पदार्थों के आश्रय से निष्पन्न होते हैं।
विशेष इतना है कि मूल ग्रन्थ में उस आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के उन भेदों को ज्ञातव्य कहकर वहां बहु-बहुविध आदि उन बारह प्रकार के पदार्थों का निर्देश नहीं किया गया है । पर धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्र के 'बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्त-ध्र वाणां सेतराणाम्' इस सूत्र (१-१६) को उद्धृत करते हुए आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के उन सूत्रोक्त भेदों को विस्तार से उच्चारणपूर्वक स्पष्ट किया है।
५. तत्त्वार्थसूत्र में अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त इन दो भेदों का निर्देश करके उनके स्वामियों के विषय में कहा गया है कि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियों के तथा क्षयोपशमनिमित्त अवधिज्ञान शेष- मनुष्य और तिर्यंचों-के होता है।
१० ख० में अवधिज्ञान के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । इनके स्वामियों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के ही समान किया गया है। __तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ उसके दूसरे भेद का उल्लेख 'क्षयोपशमनिमित्त' के रूप में किया है वहाँ ष० ख० में उसका उल्लेख 'गुणप्रत्यय' के नाम से किया गया है। स्वामियों का उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान है। 'गुण' से यहाँ सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत और महावत विवक्षित हैं, तदनुमार अणुव्रत या महाव्रत के आश्रय से होनेवाले अवधिज्ञान को गुणप्रत्यय समझना चाहिए। वह मनुष्य और तिर्यचों के ही सम्भव है। कारण यह कि तिर्यंच और मनुष्य-भवों को छोड़कर अन्यत्र अणुव्रत और महाव्रत सम्भव नहीं हैं। ___ तत्त्वार्थसूत्र में 'गुणप्रत्यय' के स्थान में जो 'क्षयोपशमनिमित्तक' के रूप में उसका उल्लेख किया है वह सामान्य कथन है। उससे मिथ्यादृष्टि तिर्यंच व मनुष्यों के अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले अवधिज्ञान (विभंगावधि) का भी ग्रहण हो जाता है । १० ख० में निर्दिष्ट 'गुणप्रत्यय' से उसका ग्रहण सम्भव नहीं है। यह इन दोनों ग्रन्थों में किये गये उक्त प्रकार के उल्लेख की विशेषता है । अभिप्राय दोनों का यही है कि तिर्यंच और मनुष्यों के जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की प्रमुखता से होता है। उनमें जिसके सम्यक्त्व है उसका वह अवधिज्ञान गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहा जायगा। किन्तु जिसके सम्यक्त्व नहीं है उसके मिथ्यात्व से सहचरित उस ज्ञान को अवधिज्ञान न कहकर विभंगावधि कहा जाता है । देव-नारकियों के उस अवधिज्ञान में क्षयोपशम के रहने पर भी उसकी प्रमुखता नहीं है, प्रमुखता वहाँ देव-नारक भव की है।
६. तत्त्वार्थसूत्र में क्षयोपशमनिमित्तक उस अवधिज्ञान के छह भेदों का भी निर्देश मात्र
१. सूत्र ५,५, २६-३५ (पु० १३, पृ० २३०-३४) २. धवला पु० १३, पृ० २३४-४१ ३. तत्त्वार्थसूत्र १,२१-२२ ४. सूत्र ५,५, ५३-५५ (पु० १३)। ५. अणुव्रत-गुणव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद् गुणप्रत्ययकम् ।
-धवला पु० १३, पृ० २६१-६२
१६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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