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इसलिए उसमें उन्हीं तत्त्वों का प्रमुखता से विचार किया गया है जो मोक्षमार्ग से विशेष सम्बद्ध रहे हैं । यही कारण है कि वहाँ षट्खण्डागम के समान उन आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से पृथक्-पृथक् जीवस्थानों की प्ररूपणा नहीं को गई है, वहाँ केवल उन आठ अनुयोग - द्वारों के नामों का उल्लेख मात्र किया गया है । उसकी वृत्तिस्वरूप सर्वार्थसिद्धि में उनके आश्रय से ठीक उसी प्रकार से विस्तारपूर्वक उन जीवस्थानों की प्ररूपणा की गई है, जिस प्रकार कि प्रस्तुत षट्खण्डागम में है ।'
३. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इम पाँच सम्यग्ज्ञानों का उल्लेख किया गया है (१-९) ।
० ख० में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत ज्ञानमार्गणा ( के प्रसंग में उन पाँच सम्यग्ज्ञानों के आश्रयभूत पाँच सम्यग्ज्ञानियों का उल्लेख उसी प्रकार से किया गया है। (१,१,११५) ।
विशेष इतना है कि तत्त्वार्थ सूत्र में जिसका उल्लेख मतिज्ञान के नाम से किया गया है ष० ख० में उसका उल्लेख आगमिक प्रद्धति से प्राभिनिबोधिक के नाम से किया गया है । तत्त्वार्थ' में मतिज्ञान के पर्याय नामों में जहाँ 'अभिनिबोध' का भी निर्देश किया गया है वहाँ ष० ख० में आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय के प्रसंग में निर्दिष्ट आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय नामों में 'मतिज्ञान' का भी निर्देश किया गया है । 3
सूत्र
४. तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के इन्द्रिय- श्रनिन्द्रियरूप कारणों, अवग्रहादि भेद-प्रभेदों व उनके विषयभूत बहु-आदि बारह प्रकार के पदार्थों का उल्लेख किया गया है; जिनके आश्रय से उसके ३३६ भेद उत्पन्न होते हैं ।
० ख० में पूर्वनिर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में उस मतिज्ञान अपरनाम ग्राभिनिबोधिकज्ञान के आवारक ग्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, श्रट्टाईस और बत्तीस भेदों का निर्देश करते हुए उनमें चार भेद अवग्रहावरणीय प्रादि के भेद से निर्दिष्ट किये गये हैं । आगे अवग्रहावरणीय के अर्थावग्रहावरणीय और व्यंजनावग्रहावरणीय इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें व्यंजनावग्रहावरणीय के श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन चार इन्द्रियों के भेद से चार भेदों का तथा प्रर्थावग्रहावरणीय के पाँचों इन्द्रियों और छठे अनिन्द्रिय ( मन ) इन छह के आश्रय से छह भेदों का उल्लेख किया गया है ।
आगे यहीं पर उक्त पाँच इन्द्रियों और छठे अनिन्द्रिय के आश्रय से ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय इनमें से प्रत्येक के छह-छह भेदों का निर्देश किया गया है । अन्त में उपसंहार के रूप में उक्त प्रभिनिबोधिकज्ञानावरणीय के ४, २४, २८, ३२, ४८, १४४,
१. स० सि० १-८ ( पृ० १३ - ५५ ) ।
२. मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । त० सू० १-१३
३. सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । सूत्र ५, ५, ४१ (पु० १३) । ( मननं मतिः- स० सि० १-१३ व धवला पु० १३, पृ० २४४ )
४. त० सू० १,१४- १६
५. सूत्र ५,५,२२-२८ ( पु० १३, पृ०२१६-२७)
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षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६३
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