________________
१. प्रकृतिबन्ध
वर्गणा खण्ड के अर्न्तगत बन्धनीय अर्थाधिकार में २३ पुद्गल वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। उनमें एक कार्मण वर्गणा भी है, जो समस्त लोक में व्याप्त है। मिथ्यादर्शनादिरूप परिणामविशेष से इस कार्मण वर्गणा के परमाणु जो कर्म रूप से परिणत होकर जीवप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं, प्रकृतिबन्ध कहलाता है। इस प्रकार जीव प्रदेशों से सम्बद्ध होने पर जो उनमें ज्ञान-दर्शन आदि आत्मीय गणों के आच्छादित करने का जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहा जाता है।
प्रारम्भिक अंश के त्रुटित हो जाने से यद्यपि यह ज्ञात नहीं हो सका कि इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा में वहाँ कितने व किन अन्योगद्वारों का निर्देश किया गया है, फिर भी आगे स्थिति बन्ध आदि की प्ररूपणा पद्धति के देखने से वह निश्चित ज्ञात हो जाता है कि इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा में वहाँ इन २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश रहा है--
१. प्रकृतिममृत्कीर्तन, २. सर्वबन्ध, ३. नोसर्वबन्ध, ४. उत्कृष्टबन्ध, ५. अनुत्कृष्टबन्ध, ६. जघन्य बन्ध, ७. अजघन्य बन्ध, ८. सादिबन्ध, ६. अनादिबन्ध, १०. ध्र वबन्ध, ११. अध्र वबन्ध, १२. बन्धस्वामित्व विचय. १३. एक जीव की अपेक्षा काल, १४. एक जीव की अपेक्षा अन्तर, १५. संनिकर्ष, १६. भंगविचय, १७. भागाभागानुगम. १८. परिमाणानुगम, १६. क्षेत्रानुगम, २०. स्पर्शनानुगम, २१. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम, २२. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम, २३. भावानुगम और २४. अल्पबहुत्वानुगम ।
१. प्रकृतिसमत्कीर्तन - इस अनुयोगद्वार में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्रापणा प्रायः उसी प्रकार से की गई है, जिस प्रकार कि उनकी प्ररूपणा उसके पूर्व जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में से प्रथम प्रकृतिसमत्कीर्तन' चलिका में तथा आगे वर्गणाखण्ड (५) के अन्तर्गत प्रकृति अनयोगद्वार में की गई है । विशेषता यह रही है कि प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियों का ही उल्लेख किया गया है (सूत्र १३-१४)। पर आगे प्रकृति अनयोगद्वार में उन ज्ञानावरणीय की पाँच उत्तरप्रकृतियों की भी कितनी ही अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है (सुत्र २१-६६)।
प्रकृत महाबन्ध में उस ज्ञानावरणीय की उत्तर-प्रकृतियों और उत्तरोत्तर-प्रकृतियों की प्ररूपणा उपर्युक्त प्रकृति अनयोगद्वार के समान की गई है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। साथ ही उन ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग से जिस प्रकार प्रकृति अनुयोगद्वार में ज्ञानभेदों की भी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इस महाबन्ध में भी उन सब की प्ररूपणा की गई है। इसके अतिरिक्त ज्ञान के प्रसंग में प्रकृति अनुयोगद्वार में जिन गाथासूत्रों (३-१७) का उपयोग किया गया है वे ही गाथासूत्र प्रायः उसी रूप में आगे-पीछे इस महाबन्ध में भी उपयुक्त
१. १० ख०, पु० ६, पृ० १-७८ में प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका । ('प्रकृतिसमुत्कीर्तन' इस
नाम का भी उपयोग दोनों स्थानों में समान रूप में किया गया है)। २. १० ख०, पु० १३, पृ० १९७-३६२ में प्रकृति अनुयोगद्वार । ३. महाबन्ध १, पृ० २१-२३
१३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org