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प्ररूपणा की गई है।
___ इसके पूर्व वेदना-खण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना-अनुयोगद्वार में निर्दिष्ट १६ अनुयोगद्वारों में से छठे वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार की प्रथम चूलिका में उन्हीं चार अनुयोगद्वारों के आश्रय से क्रमशः उन बन्धस्थान आदि की प्ररूपणा की गई है जो सर्वथा समान है। सूत्र भी प्रायः समान हैं । उसका परिचय पूर्व में कराया जा चुका है।
१. अद्धाच्छेद- अद्धा नाम काल का है। किस कर्म का उत्कृष्ट और जघन्य बन्ध कितना होता है, उसकी इस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति में आबाधाकाल कितना पड़ता है, तथा निषेक रचना किस प्रकार होती है इत्यादि की प्ररूपणा यहाँ विस्तारपूर्वक की गई है।
२-३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध-विवक्षित कर्मप्रकृति की जितनी उत्कृष्ट स्थिति नियमित है उसके बन्ध को सर्वबन्ध और उससे कम के बन्ध को नोसर्वबन्ध कहा जाता है। इन दो अनयोग द्वारों में वहाँ स्थितिबन्ध के प्रसंग में उस सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध की प्ररूपणा विभिन्न कर्मप्रकृतियों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है।
इसी प्रकार अन्य अनुयोगद्वारों के आश्रय से भी वहाँ अपने-अपने नाम के अनुसार प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है। ३. अनुभागबन्ध
ज्ञानावरणादि मूल व उनकी उत्तरप्रकृतियों का बन्ध होने पर जो उनमें यथा योग्य फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं । इस अनुभाग की प्ररूपणा यहाँ क्रम से मूल व उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से विस्तार के साथ की गई है। इस प्रसंग में यहाँ प्रथमत: निषेक प्ररूपणा और स्पर्धक प्ररूपणा इन दो अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए क्रमशः उनके आश्रय से निषेकों और स्पर्धकों की प्ररूपणा की गई है।
इसके पूर्व प्रस्तुत षट्खण्डागम के चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत वेदना-अनुयोगद्वार में जिन १६ अवान्तर अनयोगद्वारों का निर्देश किया गया है उनमें ७ वा अनुयोगद्वार भावविधान है। उसके अन्त में जो तीन चूलिकाएँ हैं उनमें से दूसरी चुलिका में अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों की प्ररूपणा इन १२ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है-१. अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा २. स्थानप्ररूपणा, ३. अन्तरप्ररूपणा, ४. काण्डकप्ररूपणा, ५. ओज-युग्मप्ररूपणा, ६. षट्स्थानप्ररूपणा, ७. अधस्तनस्थानप्ररूपणा, ८. समयप्ररूपणा, ६. वृद्धिप्ररूपणा, १०. यवमध्यप्ररूपणा, ११. पर्यवसान प्ररूपणा और १२. अल्पबहुत्व' (सूत्र १६७-६८)।
१. स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा सूत्र ३६-१००. निषेक प्ररूपणा सूत्र १०१-२०, आबाधाकाण्डक __ १२१-२२, अल्पबहुत्व १२३-६४ (पु० ११, पृ० १४०-३०८)। २. कर्म की मूल व उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट व जघन्य स्थितियों, आबाधाकाल और
निषेकरचना क्रम की प्ररूपणा जीवस्थान की चूलिका ६ व ७ में यथाक्रम से पृथक्-पृथक् विस्तारपूर्वक की गई है (पु० ६, पृ० १४५-२०२) । यहाँ 'उत्कृष्ट स्थिति' हेतु सूत्र ६ की
धवला टीका भी द्रष्टव्य है (पृ० १५०-५८) । ३. इन्हीं १२ अनुयोगद्वारों के आश्रय से आगे महाबन्ध में स्वामित्व के प्रसंग में अनुभाग
बन्धाध्यवसानस्थानों की प्ररूपणा की गई है।
मूलमन्यगत विषय का परिचय |१३९
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