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ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का श्रेणि पर आरूढ़ न होने पर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक अनादिबन्ध होता है। क्योंकि तब तक उसके अनादि काल से उनका बन्ध होता रहा है।
इस प्रकार सभी कर्मों के विषय में वहाँ विस्तार से इस सादि-अनादि बन्ध का विचार किया गया है।
१०-११. ध व-अध्रुवबन्ध-अभव्य जीव के जो बन्ध होता है वह ध्रुव बन्ध है, क्योंकि उसके अनादिकाल से हो रहे उस कर्मबन्ध का कभी अभाव होनेवाला नहीं है। __भव्य जीवों का कर्मबन्ध अध्र वबन्ध है, क्योंकि उनके उस कर्मबन्ध का अभाव होने वाला है।
इस प्रकार से वहाँ इन दो अनुयोगद्वारों में अन्य सभी कर्मों के विषय में ध्र व-अध्र वबन्ध की विस्तार से प्ररूपणा की गई है।
१२. बन्धस्वामित्वविचय-इस अनुयोगद्वार में नाम के अनुसार बन्धक-अबन्धक जीवों की प्ररूपणा ठीक उसी प्रकार से की गई है, जिस प्रकार कि प्रस्तुत षखण्डागम के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्वविचय में उनकी प्ररूपणा की गई है। विशेषता वहाँ यह रही है कि विवक्षित मार्गणा में उन बन्धक-अबन्धकों की प्ररूपणा करते हए यदि वह पूर्व प्ररूपित किसी मार्गणा के उस विषय से समानता रखती है तो वहाँ विवक्षित प्रकृतियों का नामनिर्देश न करके 'ओघभंग' आदि के रूप में पूर्व में की गई उस प्ररूपणा के समान प्ररूपणा करने का संकेत कर दिया गया है। किन्तु उस तीसरे खण्ड में ओघ और आदेश की अपेक्षा उन बन्धकअबन्धकों की प्ररूपणा करते हुए प्रायः सर्वत्र ही विवक्षित प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक प्रकृत प्ररूपणा की गई है।
यह उस महाबन्ध में प्रकृतिबन्ध के अन्तर्गत जिन प्रकृतिसमुत्कीर्तन आदि २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है उनमें प्रारम्भ के कुछ अनुयोगद्वारों में प्ररूपित विषय का दिशावबोधमात्र कराया गया है । इसी प्रकार शेष अनुयोगद्वारों में प्ररूपित विषय की प्ररूपणा विवक्षित अनुयोगद्वार के नाम के अनुसार समझना चाहिए। २. स्थितिबन्ध __ज्ञानावरणादि कर्म बँधने के पश्चात् जितने काल तक जीव के साथ सम्बद्ध होकर रहते हैं उसका नाम स्थितिबन्ध है। जिन २४ अनुयोगद्वारों का उल्लेख पूर्व में प्रकृतिबन्ध के प्रसंग में किया गया है, नाम से वे ही २४ अनुयोगद्वार इस स्थितिबन्ध के प्रसंग में भी निर्दिष्ट किये गये हैं। विशेषता केवल इतनी है कि प्रथम अनुयोगद्वार का नाम जहाँ प्रकृतिबन्ध के प्रसंग में 'प्रकृति समुत्कीर्तन' निर्दिष्ट किया गया है वहाँ इस स्थितिबन्ध के प्रसंग में वह 'अद्धाच्छेद' के नाम से निर्दिष्ट किया गया है।
सर्वप्रथम यहाँ मुल प्रकृति स्थितिबन्ध के प्रसंग में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है-स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आवाधाकाण्डक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व। इन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वहाँ स्थितिबन्धस्थान आदि की यथाक्रम से
१. अपवाद के रूप में कुछ ही प्रसंग वैसे होंगे। जैसे-माणुसअपज्जत्ताणं पंचिदियतिरिक्ख
अपज्जत्तभंगो। सूत्र ७६ (इसके पूर्व का सूत्र ७५ भी इसी प्रकार का है)
१३८ / षट्खण्डागम परिशीलन
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