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यहाँ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'गुण' से यहां सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत-महावत अभिप्रेत हैं, तदनुसार इस गुण के आश्रय से जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहा जाता है। ___ एक क्षेत्र व अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एकदेश हुआ करता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान कहलाता है तथा जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र को छोड़ कर शरीर के सब अवयवों में रहता है उसे अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान कहा जाता है । तीर्थंकर, देव और नारकियों का अवधिज्ञान अनेक क्षेत्र ही होता है, क्योंकि वह शरीर के सब अवयवों से अपने विषयभूत पदार्थ को ग्रहण किया करता है। इनके अतिरिक्त शेष जीव एकदेश से ही पदार्थ को जानते हैं, ऐसा नियम नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमावधि और सर्वावधि के धारक गणधर आदि के अपने सब अवयवों से अपने विषयभूत अर्थ का ग्रहण उपलब्ध होता है। इससे यह समझना चाहिए कि शेष जीव शरीर के एकदेश व सब अवयवों से भी जानते हैं।'
भागे इस एकक्षेत्र अवधि के विशेष स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिन जीव प्रदेशों में अवधिज्ञानावरणीय का क्षयोपशम हआ है उनके करणस्वरूप शरीर के प्रदेश अनेक आकारों में अवस्थित होते हैं। जैसे-श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक और नन्द्यावर्त आदि (५७-५८)। ___ अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार इन्द्रियाँ प्रतिनियत आकार में होती हैं उस प्रकार अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम युक्त जीवप्रदेशों के करणस्वरूप शरीर प्रदेश प्रतिनियत आकार में नहीं होते, किन्तु वे श्रीवत्स व कलश आदि अनेक आकारों में परिणत होते हैं । ये तिर्यंच व मनुष्यों के नाभि के ऊपर होते हैं, उसके नीचे नहीं होते, क्योंकि शुभ आकारों का शरीर के अधोभांग के साथ विरोध है। एक जीव के एक ही स्थान में वे आकार होते हों यह भी नियम नहीं है, किन्तु वे एक दो तीन आदि अनेक स्थानों में हो सकते हैं।
विभंगज्ञानी तिर्यच-मनुष्यों के गिरगिट आदि अशुभ आकार हुआ करते हैं, जो नाभि के नीचे होते हैं । यदि इन विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व के प्रभाव से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो वे गिरगिट आदि के अशुभ आकार हटकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ आकार उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञानियों के मिथ्यात्व के वश अवधिज्ञान विनष्ट होकर विभंगज्ञान होता है तो उनके वे नाभि के ऊपर के शंख आदि शुभ आकार विनष्ट होकर नाभि के नीचे अशुभ आकार हो जाते हैं । यह अभिप्राय धवलाकार ने सूत्र के अभाव में गुरु के उपदेशअनुसार प्रकट किया है।
कुछ आचार्यों के अभिप्रायानुसार अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के न क्षेत्रगत आकार में कुछ भेद होता और न नाभि के नीचे-ऊपर का भी कुछ नियम रहता है । सम्यक्त्व व मिथ्यात्व की संगति से किये गये नामभेद के कारण उनमें भेद नहीं है, अन्यथा अव्यवस्था होना सम्भव है।
पूर्व में अवधिज्ञान के देशावधि आदि जिन अनेक भेदों का निर्देश किया गया है उनमें
१. पु० १३, पृ० २६५-६६ २. पु० १०, पृ० २६६-६८
मूलप्रवगत विषय का परिचय | ११३
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