________________
गई है, तदनुसार बांधनेवाले का नाम बन्धन है। इससे बन्धन का अर्थ बन्धक भी होता है । तीसरी निरुक्ति ( बध्यते यत्) कर्मसाधन में की गई है, तदनुसार जिसे बांधा जाता है वह बन्धन सिद्ध होता है । इस प्रकार बन्धन का अर्थ बाँधने के योग्य ( बन्धनीय) कर्म होता है । चौथी निरुक्ति करण साधन में की गई है। तदनुसार जिसके द्वारा बाँधा जाता है वह बन्धन है, इस प्रकार से बन्धन का अर्थ बन्धविधान भी हो जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रस्तुत बन्धन अनुयोगद्वार में चार अवान्तर अनुयोगद्वार हैं—बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान ।
---
१. बन्ध--- सर्वप्रथम बन्ध की प्ररूपणा करते हुए उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैंनामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । आगे बन्धन नयविभाषणता के अनुसार कौन tय किन बन्धों को स्वीकार करता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सब बन्धों को स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्र नय स्थापनाबन्ध को स्वीकार नहीं करता । शब्दनय नामबन्ध और भावबन्ध को स्वीकार करता है (२-६) ।
आगे नामबन्ध और स्थापनाबन्ध के स्वरूप को उसी पद्धति से प्रकट किया गया है, जिस पद्धति से पूर्व में नामस्पर्श और स्थापनास्पर्श तथा नामकर्म और स्थापनाकर्म के स्वरूप को प्रकट किया गया है। तत्पश्चात् द्रव्यबन्ध को स्थगित कर भावबन्ध की प्ररूपणा भी उसी पद्धति से की गई है ( ७-१२) ।
विशेष इतना है कि नो आगमभावबन्ध की प्ररूपणा में उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध । इनमें जीवभावबन्ध तीन प्रकार का है- विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और उभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध । इनमें विपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध का स्वरूप प्रकट करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि कर्म के उदय के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले औदयिक जीवभावों का नाम विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है । ऐसे वे जीवभाव ये हैं—देव, मनुष्य, तियंच, नारक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, असंयत, अविरत, अज्ञान और मिथ्यादृष्टि । इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के और भी कर्मोदयजनित भाव हैं उन सबको विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध जानता चाहिए' (१३-१५) ।
ये सब ही जीवभाव विभिन्न कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं । जैसे— देव - मनुष्य गति आदि नामकर्म के उदय से देव - मनुष्यादि । नोकषायस्वरूप स्त्रीवेदोदयादि से स्त्री-पुरुषनपुंसक
rfare प्रत्ययिक जीवभावबन्ध दो प्रकार का है - औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध । इनमें क्रोध - मानादि के उपशान्त होने पर जो अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों में भाव होते हैं उन्हें औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहा गया है । औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्र तथा और भी जो इसी प्रकार के भाव हैं उन सबको औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध निर्दिष्ट
१. ये भाव थोड़ी-सी विशेषता के साथ तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैंगति - कषाय-लिंग-मिथ्या दर्शनासंयतासिद्धले श्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कै कै कै क षड्भेदा: । ( १२-६)
मूलप्रम्यगत विषय का परिचय / ११७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org