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आदि बहु व एक आदि बारह ( ६ + ६) प्रकार के पदार्थों को विषय करते हैं, अतः उन्ही चार ( ४, २४, २८ व ३२) को १२ से गुणित करने पर इतने भेद हो जाते हैं-- ४१२=४८, २४×१२ = २८८; २८x१२३३६; ३२ x १२ = ३८४ । इन्द्रिय व मन इन ६ से पूर्व में गुणित किया जा चुका है और यहाँ फिर से भी उनसे गुणित किया गया है, अतः इन २४ (६४) पुनरुक्त भेदों के निकाल देने पर सूत्र (३५) में निर्दिष्ट वे भेद उक्त क्रम से प्राप्त हो जाते हैं ।
आगे ‘उसी आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय की अन्य प्ररूपणा की जाती हैं' यह सूचना करते हुए उक्त अवग्रह आदि चारों के पर्यायशब्दों को इस प्रकार प्रकट किया गया है१. अवग्रह — अवग्रह, अवदान, सान, अवलम्बना और मेधा ।
२. ईहा - ईहा, कहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ।
३. अवाय — अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ।
४. धारणा - धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा । आभिनिबधिक ज्ञान के समानार्थक शब्द हैं—संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता । इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म की अन्यप्ररूपणा समाप्त की गई है (३६-४२) ।
तत्पश्चात् श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ हैं । इसके स्पष्टीकरण में आगे कहा गया है कि जितने अक्षर अथवा अक्षरसंयोग हैं उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं । आगे इन संयोगावरणों के प्रमाण को लाने के लिए एक गणितगाथा सूत्र को प्रस्तुत करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि संयोगाक्षरों को लाने के लिए ६४ संख्या प्रमाण दो (२) राशियों को स्थापित करना चाहिए, उनको परस्पर गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें एक कम करने पर संयोगाक्षरों का प्रमाण प्राप्त होता है ( ४३-४६) ।
चौंसठ अक्षर इस प्रकार हैं- क् ख् ग् घ् ड्. (कवर्ग), च् छ् ज् झ् ञ, (चवर्ग,) ट् ठ् ड् ढ् ण् (टवर्ग), त् थ् द् ध् न् ( त वर्ग ), प् फ् ब् भ् म् ( प वर्ग ); इस प्रकार २५ वर्गाक्षर । अन्तस्थ चार—य् र् ल् व्; ऊष्माक्षर चार श् ष् स् ह; अयोगवाह चार- अं अः क स्वर सत्ताईस --अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ ये नौ ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं, इस प्रकार २७ ( CX३ : २७ ) स्वर | ये सब मिलकर चौंसठ होते हैं२५+४+४+४+२७ ६४ । इन अक्षरों के भेद से श्रुतज्ञान के तथा उनके आवारक श्रुतज्ञानावरण के भी उतने (६४-६४ ) ही भेद होते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त गणित गाथा के अनुसार ६४ संख्या प्रमाण '२' के अंक को रखकर परस्पर गुणित करने पर इतनी संख्या प्राप्त होती है - १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ । इतने मात्र संयोगाक्षर होते हैं । इनके आश्रय से उतने ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार उनके आवारक श्रुतज्ञानावरण के भी उतने ही भेद होते हैं । "
इस प्रकार अक्षर प्रमाणादि की प्ररूपणा करके आगे 'उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की
१. इन अक्षर संयोगों का विवरण धवला में विस्तार से किया गया है ।
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- पु० १३, पृ० २४७-६०
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १११
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