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उसकी प्ररूपणा यहाँ सूत्रकार द्वारा नहीं की गई है।
कर्म-प्रसंग प्राप्त इस कर्म अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए कर्मनिक्षेप व कर्मनय विभाषणता आदि उन्हीं १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है, जिनका कि निर्देश पूर्व स्पर्श-अनुयोगद्वार में स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता आदि के रूप में किया गया है (सूत्र १-२)।
१. कर्मनिक्षेप-उक्त १६ अनुयोगद्वारों में प्रथम कर्मनिक्षेप है। इसमें कर्म की प्ररूपणा करते हुए यहां उसके इन दस भेदों का निर्देश किया गया है-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म (३.४)।
२. कर्मनयविभाषणता-पूर्व स्पर्श अनुयोगद्वार के समान यहां भी प्रथमतः प्रसंगप्राप्त उन कर्मों की प्ररूपणा न करके उसके पूर्व कर्मनयविभाषणता के आश्रय से इन कर्मों में कौन नय किन कर्मों को विषय करता है, इसका विचार किया गया है। यथा
नगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय उन कर्मों में सभी कर्मों को विषय करते हैं। ऋजसूत्रनय स्थापनाकर्म को विषय नहीं करता, क्योंकि इस नय की दृष्टि में संकल्प के वश अन्य का अन्यस्वरूप से परिणमन सम्भव नहीं है, इसके अतिरिक्त सब द्रव्यों में सदृशता भी नहीं रहती। शब्दनय नामकर्म और भावकर्म को विषय करता है (५-८)।
नामकर्म-आगे यथाक्रम से उन दस कर्मों का निरूपण करते हुए पूर्व पद्धति के अनुसार नामकर्म के विषय में कहा गया है कि एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजोव, एक जीव व एक अजीव, एक जीव व बहुत अजीव, बहुत जीव व एक अजीव तथा बहुत जीव व बहुत अजीव इन आठ में जिसका 'कर्म' ऐसा नाम किया जाता है वह नामकर्म कहलाता है (६-१०)।
स्थापनाकर्म--काष्ठकर्म, चित्रकर्म व पोत्तकर्म आदि तथा अक्ष व वराटक आदि में जो स्थापना बुद्धि से 'यह कर्म है' इस प्रकार की कल्पना की जाती है उसका नाम स्थापनाकर्म है (११-१२)।
_द्रव्यकर्म-जो द्रव्य सद्भावक्रिया से सिद्ध हैं उन सबको द्रव्यकर्म कहा जाता है । सद्भाव क्रिया से यहाँ जीवादि द्रव्यों का अपना-अपना स्वाभाविक परिणमन अभिप्रेत है । जैसेजीवद्रव्य का ज्ञान-दर्शनादिस्वरूप से और पुद्गल द्रव्य का वर्ण-गन्धादिस्वरूप से परिणमन, इत्यादि (१३-१४)।
प्रयोगकर्म-- मनःप्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म के भेद से प्रयोगकर्म तीन प्रकार का है। यह मन, वचन और काय के साथ होने वाला प्रयोग संसारी (छद्मस्थ) जीवों के और सयोगिकेवलियों के होता है (१५-१८)।
यहाँ सूत्र (१७) में संसारावस्थित और सयोगिकेवली इन दो का पृथक् रूप से उल्लेख किया गया है । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि 'संसरन्ति अनेन इति संसार:' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके द्वारा जीव चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण किया करते हैं उस घातिकर्मकलाप का नाम संसार है, उसमें जो अवस्थित हैं वे संसारावस्थित हैं। इस प्रकार 'संसारावस्थित' से यहाँ मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त छद्मस्थ जीव विवक्षित रहे हैं । सयोगिकेवलियों के इस प्रकार का संसार नहीं रहा है, पर तीनों योग उनके वर्तमान हैं, इस विशेषता को प्रकट करने के लिए सूत्र में सयोगिकेवलियों को पृथक् से ग्रहण किया
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १०७
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