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इसी प्रकार से आगे वेदनीय आदि अन्य कर्मों की प्रकृतियों के भेदों की प्ररूपणा की गई है (६-२३)।
समयप्रबद्धार्थता में समयप्रबद्ध के भेद से प्रकृतियों के भेदों का निर्देश किया गया है । यथा-समय प्रबद्धार्थता की अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनकी कितनी प्रकृतियां हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इनमें प्रत्येक प्रकृति तीस कोडाकोड़ी सागरोपमों को समयप्रबद्धार्थतां से गुणित करने पर जो प्राप्त होता है उतने प्रमाण है। इसी प्रकार से आगे अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार वेदनीय आदि अन्य कर्मप्रकृतियों के भी प्रमाण को प्रकट किया गया है (२४-४२)।
क्षेत्रप्रत्यास में क्षेत्र के भेद से प्रकृतियों के भेदों की प्ररूपणा की गई है । यथा
क्षेत्रप्रत्यास के अनुसार ज्ञानावरणीय की कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित जो एक हजार योजन अवगाहनावाला मत्स्य वेदनासमुद्घात से समुद्घात को प्राप्त होकर काकवर्णवाले तनुवातबलय से संलग्न हुआ है, फिर भी जो मारणान्तिक समुद्घात से समुद्घात को प्राप्त होता हुआ तीन विग्रहकाण्डकों को करके, अर्थात् तीन बार ऋजुगति से जाकर दो मोड़ लेता हुआ, अनन्तर समय में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाला है उसके इस क्षेत्रप्रत्यास से पूर्वोक्त समय-प्रबद्धार्थता प्रकृतियों को गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतनी ज्ञानावरण प्रकृतियाँ हैं' (४४-४७)। __ अभिप्राय यह है कि प्रकृत्यर्थता में जिन ज्ञानावरणीय प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है उनको अपने अपने समय-प्रबद्धार्थता से गुणित करने पर समय-प्रबद्धार्थता प्रकृतियां होती हैं। उनको जगप्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रप्रत्यास से गुणित करने पर यहां की प्रकृतियों का प्रमाण होता है।
इसी पद्धति से आगे यहाँ दर्शनावरणीय आदि अन्य कर्मप्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है (४८-५३)।
१५. वेदनाभागाभागविधान-पूर्वोक्त वेदना-परिमाण-विधान के समान यहाँ भी प्रकृत्यर्थता, समय-प्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास नाम के वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं । यहाँ क्रमशः इन तीनों के आश्रय से विवक्षित कर्मप्रकृतियां सब प्रकृतियों के कितने भाग प्रमाण हैं, इसे स्पष्ट किया गया है । इस अनुयोगद्वार में सब सूत्र २१ हैं।
१६. वेदनाअल्पबहत्व-यह वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार के पूर्वोक्त १६ अनुयोगद्वारों में अन्तिम है। यहाँ भी प्रकृत्यर्थता, समय-प्रबद्धार्थता और क्षेत्र-प्रत्यास ये वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं। यहाँ क्रम से इन तीनों अनुयोगद्वारों के आश्रय से प्रकृतियों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है। यथा
प्रकृत्यर्थता के आश्रय से गोत्रकर्म की प्रकृतियां सबसे स्तोक, उतनी ही वेदनीय की प्रकृतियाँ, उनसे आयुकर्मकी प्रकृतियाँ संख्यातगुणी, उनसे अन्तराय की विशेष अधिक, मोहनीय की संख्यातगुणी, नामकर्मकी असंख्यातगुणी, दर्शनमोहनीय की असंख्यातगुणी और उनसे ज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यातुगुणी निर्दिष्ट की गई हैं (१-१०) ।
१. इसके लिए सूत्र ४,२,५,७-१२ व उनकी धवला टीका द्रष्टव्य है । पु० ११, पृ० १४-२३
१०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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