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इस प्रकार संनिकर्ष के भेद-प्रभेदों को प्रकट करके आगे जिसके ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है उसके क्षेत्र की अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उसके क्षेत्र की अपेक्षा वह नियम से अनुत्कृष्ट होकर असंख्यातगुणी हीन होती है (६-७)। __इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि पांच सौ धनुष प्रमाण उत्सेधवाले सातवीं पृथिवी के नारकी के अन्तिम समय में ज्ञानावरण का उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है। उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी इस नारकी का क्षेत्र संख्यात घनांगुल प्रमाण है, क्योंकि पांच सौ धनुष ऊँचे और उसके आठवें भाग प्रमाण-विष्कम्भवाले इस क्षेत्र का समीकरण करने पर संख्यात प्रमाण घनांगुल प्राप्त होते हैं। उधर समुद्घात को प्राप्त महामत्स्य का उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण है । इस प्रकार इस महामत्स्य के उत्कृष्ट श्रेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी उस नारकी का क्षेत्र कम है। इसलिए सूत्र में द्रव्य की अपेक्षा उस क्षेत्रवेदना को नियम से अनुत्कृष्ट कहा गया है। इस प्रकार वह नियम से अनुत्कृष्ट होकर भी उससे असंख्यातगुणी हीन है, क्योंकि उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी उस नारकी के उत्कृष्ट क्षेत्र का
मत्स्य के उत्कृष्ट क्षेत्र में भाग देने पर जगश्रेणि का असंख्यातवा भाग प्राप्त होता है। काल की अपेक्षा वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी (८-६)।
यदि उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामी उस नारकी के अंतिम समय में उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश होता है तो काल की अपेक्षा भी उसके ज्ञानावरणीय वेदना उत्कृष्ट हो सकती है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थिति को छोड़कर अन्य स्थितियों का बन्ध सम्भव नहीं है।
किन्तु यदि उसके अन्तिम समय में उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश नहीं होता है तो वह ज्ञानावरण वेदना काल की अपेक्षा उसके नियम से अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि अंतिम समय में उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश के न होने से उसके उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध सम्भव नहीं है ।
उत्कृष्ट की अपेक्षा यह अनुत्कृष्ट वेदना कितनी हीन होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया कि वह उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कम होती है (९-१०)।
भाव की अपेक्षा वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट इन छह स्थानों में पतित होती है--अनन्तभाग हीन, असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन और अनन्तगुण हीन (११-१४) । ____ इसी पद्धति से आगे क्रम से ज्ञानावरण वेदना को क्षेत्र (१५-२३), काल (२४-३२) और भाव (३३-४१) की अपेक्षा प्रमुख करके उसके आश्रय से यथा सम्भव अन्य उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट पदों की प्ररूपणा की गई है।
आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार ऊपर ज्ञानावरण वेदना के किसी एक पद की विवक्षा में अन्य पदों की उत्कृष्टता-अनुत्कृष्टता की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय वेदनाओं में प्रस्तुत पदों की प्ररूपणा करना चाहिए, क्योंकि उससे इन तीन कर्मवेदनाओं के पदों की प्ररूपणा में कुछ विशेषता नहीं है (४२)। . ___इसी पद्धति से आगे वेदनीय वेदना (४३-६६), नाम-गोत्र (७०) और आयु (७१-६४) वेदनाओं के प्रस्तुत संनिकर्ष की प्ररूपणा की गई है।
१. धवला पु० १२, पृ० ३७७-७८
१०० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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