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तत्पश्चात् पूर्व (सूत्र ४) में जिस जघन्य स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष को स्थगित किया गया था उसके आश्रय से आगे ज्ञानावरणीय वेदना के विषय में द्रव्य, क्षेत्र, काल अथवा भाव से जघन्य किसी एक की विवक्षा में अन्य पदों की जघन्य-अजघन्यता की प्ररूपणा की गई है (९५-२१६)।
इस प्रकार स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष को समाप्त कर आगे परस्थान-वेदना-संनिकर्ष की प्ररूपणा करते हुए उसे जघन्य परस्थान-संनिकर्ष और उत्कृष्ट परस्थान-संनिकर्ष के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। यहां भी जघन्य परस्थान-संनिकर्ष को स्थगित करके प्रथमतः उत्कृष्ट परस्थान-संनिकर्ष की प्ररूपणा की गई है । उत्कृष्ट स्वस्थान-वेदना के समान यह परस्थान वेदना-संनिकर्ष भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है। इनमें द्रव्य की अपेक्षा जिसके उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदना होती है उसके आयु को छोड़कर शेष छह कर्मवेदनाएँ द्रव्य से उत्कृष्ट होती या अनुत्कृष्ट, इसका विचार किया गया है । यथा-जिसके ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है उसके आयु को छोड़ शेष कर्मों की वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उत्कृष्ट से अनुकृष्ट अनन्तभाग हीन और असंख्यातभाग हीन इन दो स्थानों में पतित होती है। उसके आयुवेदना द्रव्य की अपेक्षा नियम से अनुत्कृष्ट होकर असंख्यातगुणी हीन होती है । इसी प्रकार से आगे आयु को छोड़कर अन्य छह कर्मों के आश्रय से प्रस्तुत संनिकर्ष की प्ररूपणा करने की सूचना कर दी गई है (२१६-२५)। ___आगे आयु कर्म की प्रमुखता से प्रस्तुत संनिकर्ष का विचार करते हुए कहा गया है कि जिसके आयुवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है उसके शेष सात कर्मों की वेदना द्रव्य की अपेक्षा नियम से अनुत्कृष्ट होकर असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन और असंख्यातगुण हीन इन चार स्थानों में पतित होती है (२२६-२८)। ___ इसी प्रकार से आगे क्षेत्र (२२६-३७), काल (२३८-४५), और भाव (२४६-६१) की प्रमुखता से इन कर्मवेदनाओं के विषय में प्रस्तुत संनिकर्ष का विचार उसी पद्धति से किया गया है। इस प्रकार से यहाँ उत्कृष्ट परस्थानवेदना-संनिकर्ष समाप्त हो जाता है।
पूर्व (सूत्र २१८) में जिस जिस जघन्य परस्थानवेदना को स्थगित किया गया था यहाँ आगे उसकी प्ररूपणा भी पूर्व पद्धति के अनुसार की गई है (२६२-३२०)।
इस वेदना संनिकर्ष अनुयोगद्वार में ३२० सूत्र हैं।
१४. वेदनापरिमाणविधान—इसमें प्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है। यहां प्रारम्भ में 'वेदनापरिमाणविधान' अनुयोगद्वार का स्मरण कराते हुए उसमें इन तीन अनुयोग द्वारों का उल्लेख किया गया है-प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास (१-२)।
प्रकृत्यर्थता में प्रकृति के भेद से प्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । यथा
प्रकृत्यर्थता के आश्रय से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियां हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनकी असंख्यात लोक प्रमाण प्रकृतियाँ हैं (३-५)।
प्रकृतिका अर्थ स्वभाव या शक्ति है । ज्ञानावरण का स्वभाव ज्ञान को आच्छादित करने का और दर्शनावरण का स्वभाव दर्शन को आच्छादित करने का है। क्रमशः उनसे आवियमाण ज्ञान और दर्शन इन दोनों के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं । अतः उनको क्रम से आच्छादित करनेवाले ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं ।
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १०१
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