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कमी के प्रमाण को पूर्व के समान जानकर कहना चाहिए।'
प्रथम पृथिवी के नारकियों ने उक्त तीनों पदों से लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श किया
दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों ने स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग तथा समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग अथवा चौदह भागों में यथाक्रम से कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह भागों का स्पर्श किया है (८-११)। ___इसी पद्धति से आगे तिर्यंचगति आदि तीन गतियों और इन्द्रिय-काय आदि शेष मार्गणाओं के आश्रय से प्रकृत स्पर्शन की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र २७६ हैं । ८. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम
__ इस अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में वर्तमान जीव वहाँ नाना जीवों की अपेक्षा कितने काल रहते हैं, इसका विचार किया गया है। यथा__नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम से गतिमार्गणा के अनुसार नरकगति में नारकी जीव कितने काल रहते हैं, यह पूछे जाने पर उत्तर में कहा गया है कि वे वहाँ सर्वकाल रहते हैं, उनका वहाँ कभी अभाव नहीं होता। यह जो सामान्य से नारकियों के काल का निर्देश किया गया है। वही पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों के नारकियों को भी निर्दिष्ट किया गया है (१-३) ।
तिर्यंचगति में नाना जीवों की अपेक्षा पाँचों प्रकार के तिर्यंचों और मनुष्यगति में मनुष्य अपर्याप्तकों को छोड़कर सभी मनुष्यों का भी सर्वकाल (अनादि-अनन्त) ही कहा गया है। मनुष्य अपर्याप्त जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण मात्र और उत्कर्ष से वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्रकाल तक अपनी उस पर्याय में रहते हैं (४-८)।
देवगति में सामान्य से देवों का व विशेष रूप से भवनवासियों को आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी तक पृथक्-पृथक् सभी देव सदाकाल रहते हैं, उनमें से किन्हीं का भी कभी अभाव नहीं होता (६-११)।
इसी पद्धति से आगे इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं में भी प्रस्तुत काल की प्ररूपणा की गई है। सब सूत्र यहाँ ५५ हैं। ६. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम
यहाँ गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में नाना जीवों की अपेक्षा यथाक्रम से अन्तर की प्ररूपणा की गई है। यथा
गतिमार्गणा के अनुसार नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम से नरकगति में नारकियों का अन्तर कितने काल होता है, इस प्रश्न को उठाते हुए उसके उत्तर में कहा गया है कि उनका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर हैं-सदाकाल विद्यमान रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में नारकी जीवों का अन्तर नहीं होता-वे सदा विद्यमान रहते हैं (१-४)।
तिर्यंचगति में पाँचों प्रकार के तिर्यंच और मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त
१. धवला पु०७, पृ० ३६६-७०
६८/पटवण्डागम-परिशी
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