________________
मैथुन, परिग्रह व रात्रि भोजन; इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माय (मेष), मोष, (स्तेय), मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग (सूत्र१-११)।
तत्त्वार्थसूत्र (८-१) में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इनको बन्ध का कारण कहा गया है। धवलाकार ने उपर्युक्त वेदनाप्रत्ययविधान में निर्दिष्ट उन सब प्रत्ययों को इन्हीं मिथ्यादर्शन आदि के अन्तर्गत किया है। उन्होंने उपर्युक्त प्रत्ययों में प्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन इन प्रारम्भ के छह प्रत्ययों को असंयम प्रत्यय कहा है।
क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान (प्रस्थ आदि), माय (मेय-गेहूँ आदि), और मोष (स्तेय), इन सबको धवला में कषाय प्रत्यय कहा गया है । इनके अतिरिक्त वहाँ मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन को मिथ्यात्व प्रत्यय तथा प्रयोग को योग प्रत्यय निर्दिष्ट किया गया है।
प्रमाद के विषय में धवला में वहाँ यह शंका उठायी गई है कि इन प्रत्ययों में यहाँ प्रमाद प्रत्यय का निर्देश क्यों नहीं किया गया। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि इन प्रत्ययों के बाहर प्रमाद प्रत्यय नहीं पाया जाता-उसे इन्हीं प्रत्ययों के अन्तर्गत समझना चाहिए।
आगे ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि वेदनाओं के प्रत्यय की प्ररूपणा करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि इस नय की अपेक्षा प्रकृति और प्रदेश पिण्ड स्वरूप वह कर्मवेदना योग प्रत्यय से तथा स्थिति और अनुभाग स्तरूप वह वेदना कषाय प्रत्यय से होती है (१२-१४)।
अन्त में शब्दनय की अपेक्षा उक्त कर्मवेदनाओं के प्रत्यय को प्रकट करते हुए उसे 'अवक्तव्य' कहा गया है (१५-१६)।
धवलाकार ने इसका कारण शब्दनय की दृष्टि में समास का अभाव बतलाया है। उदाहरण के रूप में वहाँ यह कहा गया है कि 'योगप्रत्यय' में 'योग' शब्द योगरूप अर्थ को तथा 'प्रत्यय' शब्द प्रत्ययरूप अर्थ को कहता है, इस प्रकार समास के अभाव में दो पदों के द्वारा एक अर्थ की प्ररूपणा नहीं की जाती है । अतएव तीनों शब्दनयों की अपेक्षा वेदना का प्रत्यय अवक्तव्य है।
इस प्रकार यह वेदना प्रत्यय विधान अनुयोगद्वार १६ सूत्रों में समाप्त हुआ है ।
६. वेदना-स्वामित्व-विधान—इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि कर्मवेदनाओं के स्वामी के विषय में विचार किया गया है। यथा
सर्वप्रथम यहाँ वेदनास्वामित्वविधान अधिकार का स्मरण कराते हुए कहा गया है कि
१. एवमसंयमप्रत्ययो परुविदो ।-धवला पु० १२, पृ० २८३ २. क्रोध-माण-माया-लोभ-राग-दोस-मोह-पेम्म-णिदाण-अब्भक्खाण-कलह-पेसुण-रदि-अरदि
उवहि-माण-माय-मोसेहि कसायपच्चओ परूविदो। मिच्छणाण-मिच्छदंसणेहि मिच्छत्त पच्चओ णिहिट्ठो। पओएण जोगपच्चओ परूविदो। पमादपच्चओ एत्थ किण्ण वुत्तो? ण, एदेहितो बज्झपमादाणुवसंभादो ।-धवला पु० १२, पृ० २८६
६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org