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'संख्यात वर्षायुष्क' से अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में उत्पन्न और कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न जीव को ग्रहण किया है। 'कर्मभूमिप्रतिभाग' से स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में उत्पन्न जीवों का अभिप्राय रहा है। __'असंख्यातवर्षायुष्क' से एक समय अधिक पूर्वकोटि को लेकर आगे की आयुवाले तिर्यंच व मनुष्यों को न ग्रहण करके देव-नारकियों को ग्रहण किया है। __ काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अनुत्कृष्ट उपर्युक्त उत्कृष्टवेदना से भिन्न कही गई है (६)
आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार ऊपर काल की अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आयु को छोड़कर शेष छह कर्मों के विषय में प्ररूपणा करना चाहिए (१०)।
काल की अपेक्षा उत्कृष्ट आयु कर्मवेदना के विषय में विचार करते हुए आगे कहा गया है कि वह उस अन्यतर मनुष्य अथवा संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच के होती है जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका है; वह सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि में कोई भी हो; कर्मभूमिज अथवा कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न कोई भी हो; किन्तु संख्यातवर्षायुष्क होना चाहिए; स्त्रीवेद, पुरुषवेद अथवा नपुंसकवेद इनमें किसी भी वेद से युक्त हो; जलचर हो या थलचर हो; साकार उपयोग से युक्त, जागृत व तत्प्रायोग्य संक्लेश अथवा विशुद्धि से युक्त हो; तथा जो उत्कृष्ट आबाधा के साथ देव अथवा नारकी की आयु को बाँधनेवाला है। उसके आयुवेदना काल की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है (११-१२) ।
__ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट देवायु को मनुष्य ही बाँधते हैं, पर उत्कृष्ट नारकायु को मनुष्य भी बाँधते हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी बाँधते हैं, इसी अभिप्राय को हृदयंगम करते हुए सूत्र में मनुष्य और तिर्यंच इन दोनों शब्दों को ग्रहण किया गया है । इसी प्रकार देवों की उत्कृष्ट आयु को सम्यग्दृष्टि और नारकियों की उत्कृष्ट आयु को मिथ्यादृष्टि ही बाँधते हैं; इसके ज्ञापनार्थ सूत्र में 'सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि' इन दोनों को ग्रहण किया गया है।
देवों की उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों में ही बांधी जाती है, किन्तु नारकियों की उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों और कर्मभूमि प्रतिभागों में भी बाँधी जाती है, इस अभिप्राय से सूत्र में कर्मभूमिज और कर्मभूमि-प्रतिभागज इन दोनों का निर्देश किया गया है। देवनारकियों की उत्कृष्ट आयु को असंख्यात वर्षायुष्क तिर्यंच और मनुष्य नहीं बाँधते हैं, संख्यात वर्ष की आयुवाले ही उनकी उत्कृष्ट आयु को बाँधते हैं।
सूत्र में काल की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना में तीनों वेदों के साथ अविरोध प्रकट किया गया है। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि 'वेद' से यहाँ भाववेद को ग्रहण किया गया है, क्योंकि द्रव्य स्त्रीवेद के साथ नारकियों की उत्कृष्ट आयु का बन्ध नहीं होता। ऐसा न मानने पर “आ पंचमी त्ति सिंहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवि ति" इस सूत्र (मूलाचार १२, ११३) के साथ विरोध का प्रसंग अनिवार्य होगा। इसी प्रकार देवों की उत्कृष्ट आयु भी द्रव्य स्त्रीवेद के साथ नहीं बाँधी जाती, अन्यथा “णियमा णिग्गलिगेण" इस सूत्र (मूलाचार १२१३४) के साथ विरोध अवश्यंभावी है । यदि कहा जाय कि द्रव्य स्त्रियों के निर्ग्रन्थता सम्भव है तो यह कहना संगत नहीं होगा, क्योंकि वस्त्र आदि के परित्याग बिना उनके भावनिर्ग्रन्थता असम्भव है । द्रव्यस्त्री और नपुंसक वेदवालों के वस्त्र का त्याग नहीं होता, अन्यथा छेदसूत्र के
८८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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