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समुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार।
जीवसमुदाहार में साता वा असातावेदनीय की एक-एक स्थिति में इतने-इतने जीव हैं, इत्यादि का विचार किया गया है । यथा--
ज्ञानावरणीय के बन्धक जीव दो प्रकार के हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । इनमें मातबन्धक जीव तीन प्रकार के हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । असातबन्धक जीव भी तीन प्रकार के हैं—द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतु:स्थानबन्धक । साता के चतुःस्थानबन्धक जीव से विशुद्ध, त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर और द्विस्थानबन्धक उनसे संक्लिष्टतर होते हैं। असाता के द्विस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध, त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर और चतुःस्थानबन्धक उनसे संक्लिष्टतर होते हैं (१६५-७४) ।
सातावेदनीय का अनुभाग चार प्रकार का है--गुड़, खांड, शक्कर और अमृत । इनमें चारों के बन्धक चतुःस्थानबन्धक, अमृत को छोड़ शेष तीन बन्धक त्रिस्थानबन्धक और अमृत व शक्कर को छोड़ शेष दो के बन्धक द्विस्थानबन्धक कहलाते हैं। ___'सर्वविशुद्ध' का अर्थ है साता के द्विस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धकों से विशुद्ध । यहाँ विशुद्धता से अतिशय तीव्रकषाय का अभाव अथवा मन्दकषाय अभिप्रेत है। अथवा जघन्य स्थितिबन्ध के कारणभूत परिणाम को विशुद्धि समझना चाहिए।
__ असातावेदनीयका अनुभाग भी चार प्रकार का है-नीम, कांजीर, विष और हालाहल । इनमें चारों के बन्धक जीव असाता के चतुःस्थानबन्धक, हालाहल को छोड़ त्रिस्थानबन्धक और हालाहल व विष को छोड़ द्विस्थानबन्धक कहलाते हैं।
आगे साता-असाता के चतुःस्थानबन्धक आदि जीव ज्ञानावरणीय की जघन्य आदि किस प्रकार की स्थिति को बाँधते हैं, इत्यादि का विचार किया गया है (१७५-२३८)।
प्रकृतिसमुदाहार में दो अनुयोगद्वार हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । इनमें से प्रमाणानुगम में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के स्थितिबन्धाध्यवसानों का प्रमाण प्रकट किया गया है (२३६-४१)। ___ अल्पबहुत्व में उन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों की हीनाधिकता को दिखलाया गया है (२४२-४५)। ___ स्थितिसमुदाहार में ये तीन अनुयोगद्वार हैं-प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्र-मन्दता । इनमें से प्रगणना में इस स्थिति के बन्ध के कारणभूत इतने-इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२४६-६८)।
अनुकृष्टि में उन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों की समानता व असमानता को व्यक्त किया गया है (२६६-७१)।
तीव्र-मन्दता के आश्रय से ज्ञानावरणीय आदि के जघन्य अादि स्थिति सम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान के अनुभाग की तीव्रता व अन्दता का विचार किया गया है (२७२-७६)। ___इस स्थितिसमुदाहार के समाप्त होने पर प्रस्तुत वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार की दूसरी चूलिका समाप्त होती है । इस प्रकार यहाँ वेदनाकालविधान समाप्त हुआ है।
वेदनाक्षेत्रविधान और वेदनाकालविधान ये दो (५,६) अनुयोगद्वार ११वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं।
मूलग्रन्यगत विषय का परिचय | ६१
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