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आचार्यों के उपदेश का नाम ग्रन्थ है, उसके समान श्रुत को ग्रन्थसम कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि आचार्यों के पादमूल में बारह अंगोंरूप शब्दागम को सुनकर जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे ग्रन्थसम जानना चाहिए।
नामभेद के द्वारा अनेक प्रकार से अर्थ ज्ञान के कराने के कारण एक आदि अक्षरोंस्वरूप बारह अंगों के अनुयोगों के मध्य में स्थित द्रव्यश्रुतज्ञान के भेदों को नाम कहा जाता है, उस नामरूप द्रव्यश्रुत के साथ जो श्रुतज्ञान रहता है, उत्पन्न होता है वह नामसम कहलाता है। यह नामसम श्रुतज्ञान शेष आचार्यों में स्थित होता है। इसी के सम्बन्ध में आगे प्रकारान्तर से यह कहा गया है कि आचार्यों के पादमूल में द्वादशांग शब्दागम को सुनकर जिसके प्रतिपाद्य अर्थविषयक ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे नामसम कहा जाता है।
___ 'घोष' शब्द से यहाँ नाम का एक देश होने से घोषानुयोग विवक्षित है, उस 'घोष' द्रव्यानुयोगद्वार के साथ जो रहता है उस अनुयोग श्रु तज्ञान का नाम घोषसम है। आगे प्रकारान्तर से उसके सम्बन्ध में कहा गया है कि बारह अंगोंस्वरूप शब्दागम को सुनते हुए जिसके सुने हुए अर्थ से सम्बद्ध अर्थ को विषय करनेवाला ही श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है उसे घोषसम कहा जाता है।
___ इस प्रकार आगम द्रव्यकृतिविषयक नौ अर्थाधिकारों का निर्देश करते हुए आगे उन अर्थाधिकारों सम्बन्धी उपयोगभेदों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है—उन नौ अर्थाधिकारों के विषय में जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा और भी जो इस प्रकार के हैं वे उपयोग हैं (५५)।
सूत्र में 'उपयोग' शब्द के न होने पर धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में यद्यपि 'उपयोग' शब्द नहीं है तो भी अर्थापत्ति से उसका अध्याहार करना चाहिए।
उक्त स्थित आदि नौ आगमोंविषयक जो यथाशक्ति भव्य जीवों के लिए ग्रन्थार्थ की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम वाचना-उपयोग है। अज्ञात पदार्थ के विषय में प्रश्न करनापूछना, इसका नाम पृच्छना उपयोग है । विस्मरण न हो, इसके लिए पुनः पुनः भावागम का परिशीलन करना. यह परिवर्तना नाम का उपयोग है। कर्मनिर्जराके लिए अस्थि-मज्जासे अनुगत-हृदयंगम किये गये-श्रुतज्ञान का परिशीलन करना, इसे अनुप्रेक्षणा उपयोग कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि सुने हुए अर्थ का जो श्रुतके अनुसार चिन्तन किया जाता है उसे अनुप्रेक्षणा उपयोग समझना चाहिए।
समस्त अंगों के विषय की प्रमुखता से किये जानेवाले बारह अंगों के उपसंहार का नाम स्तव है। बारह अंगों में एक अंग के उपसंहार को स्तुति और अंग के किसी एक अधिकार के उपसंहार को धर्मकथा कहा जाता है।'
उक्त वाचनादि उपयोगों से रहित जीव को, चाहे वह श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से रहित हो अथवा विनष्ट क्षयोपशमवाला हो, अनुपयुक्त कहा जाता है । ऐसे अनुपयुक्तों की प्ररूपणा करते हुए आगे कहा गया है कि नैग और व्यवहार नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त को अथवा अनेक अनुपयुक्तों को आगम से द्रव्यकृति कहा जाता है। संग्रहनय की अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्त जीव आगम से द्रव्यकृति हैं । ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त
१. इसके लिए आगे धवला पु० १४, पृ० ६ और गो० कर्मकाण्ड गाथा ४६ भी द्रष्टव्य हैं।
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ७५
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