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घात केवलियों के होता है, अतः वह भी नारकियों के सम्भव नहीं है। तेजस समुद्घात महाव्रतों के बिना नहीं होता, इससे उसकी भी सम्भावना नारकियों के नहीं है ।
पूर्व भव को छोड़कर अगले भव के प्रथम समय में जो प्रवृत्ति होती है, इसे उपपाद कहा जाता है ।
इस प्रकार नरकगति में नारकियों के क्षेत्रप्रमाण को दिखाकर आगे तिर्यंचगति में उस क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि तियंचगति में सामान्य तिर्यंच उक्त तीन पदों की अपेक्षा सब लोक में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त ये उन तीनों पदों की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । ( ४-७ ) ।
मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यणी स्वस्थान और उपपाद पद से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । समुद्घात की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में, असंख्यात बहुभागों में और समस्त लोक में रहते हैं। मनुष्य अपर्याप्त उन तीनों पदों से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । ( ८-१४) ।
यहाँ समुद्घात की अपेक्षा जो मनुष्यों का क्षेत्र असंख्यात बहुभाग और समस्त लोक कहा गया है वह क्रम से प्रतरसमुद्घात और लोकपूरण समुद्घातगत केवलियों की अपेक्षा से कहा गया है ।
देवगति में सामान्य देवों का तथा विशेषरूप में भवनवासी आदि सर्वार्थसिद्धि विमान वासी देवों तक का क्षेत्र सामान्य से देवगति के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया गया है (१५-१७) ।
इसी पद्धति से आगे इन्द्रिय व काय आदि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से भी क्रमशः प्रकृत क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र १२४ हैं ।
७. स्पर्शनानुगम
पूर्वक्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार में जहाँ जीवों के वर्तमान निवासभूत क्षेत्र का विचार किया गया है वहाँ इस स्पर्शनानुगम में उक्त तीन पदों की अपेक्षा उन चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से वर्तमान क्षेत्र के साथ अतीत ६ जनागत काल का भी आश्रय लेकर इस स्पर्शनक्षेत्र की प्ररूपणा की गई है यथा-
नरकगति में नारकियों ने स्वस्थान पद से कितने क्षेत्र का स्पर्श किया है, इस प्रश्न को उठाते हुए उसके स्पष्टीकरण में यह कहा गया है कि उन्होंने स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श किया है तथा समुद्घात और उपपाद इन दो पदों की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग का अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है (१-५) ।
यह कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्र अतीत काल के आश्रय से सातवीं पृथिवी के नारकी द्वारा किए जानेवाले मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा कहा गया है । इसमें जो कुछ कम किया गया है वह धवलाकार के अभिप्रायानुसार संख्यात हजार योजनों से कम समझना चाहिए । प्रकारान्तर से धवलाकार ने यह भी कहा है कि अथवा 'कम का प्रमाण इतना है', यह जाना नहीं जाता, क्योंकि पार्श्व भागों के मध्य में इतना क्षेत्र कम है, इस विषय में विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं है। आगे उन्होंने कहा है कि उपपाद पद के प्रसंग में भी इस
ग्रन्थगत विषय का परिचय / ६७
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