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३. एकजीव की अपेक्षा अन्तरानुगम
यहां गति-इन्द्रिय आदि उन्हीं चौदह मार्गणाओं में अपगे-अपने अवान्तर भेदों के साथ एक जीव की अपेक्षा अन्तर की प्ररूपणा की गई है । यथा
नरकगति में नारकियों का अन्तर कितने काल होता है, इस प्रश्न को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह उनका अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गल परिवर्तन रूप अनन्त काल तक होता है । यह जो सामान्य से अन्तर कहा गया है वही अन्तर पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों के ना रकियों का भी है (१-४)।
अभिप्राय यह है कि कोई एक नारकी नरक से निकलकर यदि गर्भज तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होता है और वहाँ सबसे जघन्य आयु के काल में नारक आयु को बाँधकर मरण को प्राप्त होता हुआ पुनः नारकियों में उत्पन्न होता है तो इस प्रकार से वह सूत्रोक्त अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त हो जाता है। । सूत्रनिर्दिष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण वह उत्कृष्ट अन्तर उसे नारकी की अपेक्षा उपलब्ध होता है जो नरक से निकलकर, नरक गति को छोड़ अन्य गतियों में आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण परिभ्रमण करता हुआ पीछे फिर से नारकियों में उत्पन्न होता है। __ जिस प्रकार यह अन्तर की प्ररूपणा नरक गति के आश्रय से नारकियों के विषय में की गई है इसी प्रकार से वह आगे सामान्य तिर्यंचों व उनके अवान्तर भेदों में, सामान्य मनुष्यों व उनके अवान्तर भेदों में (५-१०) तथा सामान्य देवों व उनके अन्तर्गत भेदों में (११-३४) की गई है।
इसी प्रकार से आगे प्रकृत अन्तर की प्ररूपणा यथाक्रम से इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं के आश्रय से की गई है (३५-१५१)। इस अनुयोगद्वार में समस्त सूत्रों की संख्या १५१ है ।
४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय
इस अनुयोगद्वार की समस्त सूत्र संख्या २३ है । गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जीव नियम से कहाँ सदाकाल विद्यमान रहते हैं और कहाँ वे कदाचित् रहते हैं व कदाचित् नहीं भी रहते हैं, इस प्रकार इस अनुयोगद्वार में विवक्षित जीवों के अस्तित्व व नास्तित्व रूप भंगों का विचार किया गया है । यथा--
गतिमार्गणा के प्रसंग में कहा गया है कि सामान्य नारकी तथा पृथक्-पृथक् सातों पृथिवियों के नारकी नियम से रहते हैं, उनका वहाँ कभी अभाव नहीं होता (१-२)।
तियंचगति में सामान्य तिर्यंच व पंचेद्रिय तिर्यंच आदि विशेष तिर्यंच तथा मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यिणी ये सब जीव नियम से सदा ही रहते हैं (३)।
मनुष्य अपर्याप्त कदाचित् रहते हैं और कदाचित् नहीं भी रहते हैं (४)।
देवगति में सामान्य से देव व विशेष रूप से भवनवासी आदि सभी देव नियम से सदा काल रहते हैं (५-६)।
इसी पद्धति से आगे अन्य इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में भी जीवों के अस्तित्व-नास्तित्व का विचार किया गया है (७-२३)।
यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि ऊपर जिस प्रकार मनुष्य अपर्याप्तों के कदाचित् रहने और
मलगतग्रन्थ विषय का परिचय | ६५
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