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मनुष्यों में आते हुए वे गर्भजों में आते हैं, सम्मूर्छनों में नहीं । गर्भजों में आते हुए बे पर्याप्तकों में आते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं । पर्याप्तकों में आते हुए वे संख्यातवर्षायुष्कों में आते हैं, असंख्यात वर्षायुष्कों में नहीं (७६-८५) ।
यह प्ररूपणा यहाँ नारकी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टियों के आश्रय से की गई है। इसी पद्धति से आगे वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि नारकियों (८६-१००), विभिन्न तिर्यंचों (१०१-४०), मनुष्यों (१४१-७२) और देवों (१७३-२०२) के आश्रय से भी की गई है। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कहीं से भी निकलना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं होता।
४. नीचे सातवीं पृथिवी के नारकी नारक पर्याय को छोड़कर कितनी गतियों में आते हैं, इस प्रश्न को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वे एक मात्र तिर्यंचगति में आते हैं। तियंचों में उत्पन्न होकर वे तिर्यंच आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम इन छह को नहीं उत्पन्न करते हैं । छठी पृथिवी के नारकी नरक से निकलते हुए तियंच गति और मनुष्य गति इन दो गतियों में आते हैं । तियंचों और मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही इन छह को उत्पन्न करते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम।
पांचवीं पथिवी के नारकी नरक से निकल कर तिर्यंच गति और मनुष्य गति इन दो गतियों में आते हैं । तिर्यंचों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही इन छह को उत्पन्न करते हैंआभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम । मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें से कुछ इन आठ को उत्पन्न करते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम ।
चौथी पृथिवी के नारकी नरक से निकलकर तिर्यंच और मनुष्य इन दो गतियों में आते हैं । तिर्यंचों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही पूर्वोक्त आभिनिबोधिकज्ञान आदि छह को उत्पन्न करते हैं । मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें से कितने ही इन दस को उत्पन्न करते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान आदि पांच ज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम, संयम और मुक्ति । पर वे बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर नहीं होते । मुक्ति के प्रसंग में यहाँ कहा गया है कि उनमें कितने ही अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, और सब दुःखों के अन्त होने का अनुभव करते हैं। ____ ऊपर की तीन पृथिवियों के नारकियों की प्ररूपणा पूर्वोक्त चतुर्थ पृथिवी से निकलते हुए नारकियों के ही समान है। विशेषता इतनी है कि उन तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए उनमें कुछ पूर्वोक्त दस के साथ तीर्थकरत्व को भी उत्पन्न करते हैं, इस प्रकार वे ग्यारह को उत्पन्न करते हैं। ____ यह प्ररूपणा यथासम्भव सातवीं-छठी आदि पृथिवियों से निकलते हुए नारकियों के विषय में की गई है (२०३-२०)।
इसी पद्धति से आगे प्रकृत प्ररूपणा तिर्यंच-मनुष्यों (२२१-२५) और देवों (२२६-४३) के विषय में भी की गई है।
इस प्रकार उपर्युक्त नौ चूलिकाओं में विभक्त यह जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध चूलिका प्रकरण ५१५ सूत्रों (४६+ ११७+२+२+२+४४+४३+१६+ २४३) में समाप्त हुआ
६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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