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४. नारक आदि विवक्षित पर्याय को छोड़कर किन गतियों में आते-जाते हैं व वहाँ उत्पन्न होकर किन-किन ज्ञानादि गुणों को उत्पन्न करते और किन गुणों को वे नहीं उत्पन्न करते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (२०३-४३) । __ इनमें से प्रत्येक को यहाँ उदाहरण के रूप में उसके प्रारम्भिक अंश को लेकर स्पष्ट किया जाता है
१. नारकी मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हुए उसे पर्याप्तकों में उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में भी वे पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न करते हैं, उसके पूर्व में नहीं । प्रथम तीन पृथिवियों में वर्तमान नारकियों में कोई उस सम्यक्त्व को जातिस्मरण से, कोई धर्मश्रवण से और कोई वेदना के अनुभव से इस प्रकार तीन कारणों से उत्पन्न करते हैं। नीचे चार पृथिवियों के नारकी धर्मश्रवण के बिना उपर्युक्त दो ही कारणों से उसे उत्पन्न करते हैं (१-१२)।
इसी प्रकार से शेष तिर्यंचों आदि में भी उक्त सम्यक्त्व की उत्पत्ति को स्पष्ट किया गया है।
२. नारकियों में कितने ही मिथ्यात्व के साथ नरकगति में प्रविष्ट होकर व वहाँ मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व के साथ रहकर अन्त में वहाँ से मिथ्यात्व के साथ निकलते हैं। कोई मिथ्यात्व के साथ वहाँ प्रविष्ट होकर अन्त में सासादनसम्यक्त्व के साथ वहाँ से निकलते हैं । कोई मिथ्यात्व के साथ प्रविष्ट होकर सम्यक्त्व के साथ वहाँ से निकलते हैं। कोई सम्यक्त्व के साथ नरकगति में प्रविष्ट होकर सम्यक्त्व के साथ ही वहाँ से निकलते हैं। पर यह प्रथम पृथिवी में प्रविष्ट होने वाले नारकियों के ही सम्भव है। इसका कारण यह है कि जिन्होंने सम्यक्त्व के प्राप्त करने के पूर्व नारकायु को बाँध लिया है व तत्पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त किया है वे बद्धायुष्क जीव नरकगति में तो जाते हैं, पर प्रथम पृथिवी में ही जाकर उत्पन्न होते हैं; आगे की पृथिवियों में उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
दूसरी से छठी पृथिवी के नारकियों में कोई मिथ्यात्व के साथ वहाँ जाकर मिथ्यात्व के साथ ही वहां से निकलते हैं,कोई मिथ्यात्व के साथ वहाँ जाकर सासादनसम्यक्त्व के साथ वहाँ से निकलते हैं, और कोई मिथ्यात्व के साथ जाकर सम्यक्त्व के साथ वहां से निकलते हैं।
सातवीं पृथिवी के नारकियों में सभी मिथ्यात्व के साथ ही वहाँ से निकलते हैं। जो नारकी वहाँ सम्यक्त्व, सासादनसम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व को भी प्राप्त होते हैं वे मरण के समय उससे च्युत होकर नियम से मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं (४४-५२)। ___ इसी प्रकार से आगे क्रम से तिर्यंच, मनुष्य और देवों के विषय में भी प्रकृत प्ररूपणा की गई है (५३-७५)।
३. नारकी मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि नरक से निकलकर कितनी गतियों में आते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वे तियंच गति और मनुष्य गति इन दो गतियों में आते हैं। तिर्यंचों में आते हुए वे पंचेन्द्रियों में आते हैं, एकन्द्रियों व विकलेन्द्रियों में नहीं आते। पंचेन्द्रियों में आते हुए वे संज्ञियों में आते हैं, असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियों में आते हुए वे गर्भ जन्मवालों में आते हैं, सम्मूर्छन जन्मवालों में नहीं । गर्भजों में आते हुए वे पर्याप्तकों में आते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में आते हुए वे संख्यातवर्षायुष्कों में आते हैं, असंख्यातवर्षायुष्कों में नहीं।
मूलगतप्रन्थ विषय का परिचय | ६१
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