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गुणस्थाम
प्रमाण १. मिथ्यादृष्टि
अनन्त २. सासादनसम्यग्दृष्टि
असंख्य ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तसंयत
५६३६८२०६ ७. अप्रमत्तसंयत
२६६६६१०३ ८. अपूर्वकरण ६. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह
५१८ १३. सयोगिकेवली
८९८५०२ १४. अयोगिकेवली
५६८ ओषप्ररूपणा के पश्चात् आदेशप्ररूपणा में क्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जो गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के द्रव्य प्रमाण की प्ररूपणा इसी पद्धति से की गई है (१५-१६२)। इस प्रकार यह अनुयोगद्वार १६२ सूत्रों में समाप्त हुआ है। वह उक्त १६ जिल्दों में से तीसरी जिल्द में प्रकाशित हुआ है। ३. क्षेत्रानुगम
उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में यह तीसरा है। इसमें समस्त सत्र ६२ हैं । क्षेत्र से यहाँ आकाश अभिप्रेत है। वह दो प्रकार का है— लोकाकाश और अलोकाकाश । जहाँ तक जीवादि पाँच द्रव्य अवस्थित हैं उतने आकाश का नाम लोकाकाश है । इस लोकाकाश के सब
और उन जीवादि द्रव्यों से रहित शद्ध अनन्त अलोकाकाश है। कृत में लोकालाश विवक्षित है। ____ कौन जीव कितने लोकाकाश में रहते हैं, इसका बोध कराना इस अनुयोगद्वार का प्रयोजन है । पूर्वोक्त द्रव्य-प्रमाणानुगम के समान इस क्षेत्रानुगम में प्रत क्षेत्र की प्ररूपणा भी प्रथमतः ओघ अर्थात् मार्गणानिरपेक्ष के गुणास्थान के आधार से की गई है और तत्पश्चात् गतिइन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से उन में यथासम्भव गुणस्थानों को लक्ष्य करके उस क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है।
उनमें ओघ की अपेक्षा क्षेत्र की प्ररूपणा करते हुए मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र समस्त लोक तथा आगे के सासादनसम्यग्दृष्टि आदि अयोगिकेवली पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है (स्त्र २-३) । लोक से यहाँ ३४३ घन राज प्रमाण लोक की विवक्षा रही है । यहाँ सूत्र (३) में जो सामान्य से सासादनसम्यग्दष्टि आदि अयोगिकेवली पर्यन्त ऐसा कहा गया है उसमें यद्यपि सयोगिकेवली भी आ जाते हैं, पर उनके क्षेत्र में 'लोक के असंख्यातवें भाग से' विशेषता है, अतएव उसे स्पष्ट करने के लिए अपवाद
५०/षटखण्डागम-परिशीलन
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