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१. तिरिक्खा
"तिरिक्खेहि' कालगदसमाणा कदिगदीओ
गच्छंति (सूत्र १, ६-६, १०१) ।
यहाँ धवलाकार द्वारा स्पष्ट किया गया है कि औपचारिक तिर्यंचों के प्रतिषेध के द्वितीय 'तिर्यंच' पद को ग्रहण किया गया है। 'तिरिक्खेहि' का अर्थ 'तिर्यंच पर्यायों से' किया गया है। २. अधो सत्तमा पुढवीए णेरइया णिरयादो णेरइया उच्चट्टिदसमाणा कदि गदीओ गच्छति ? (सूत्र १, ६-६, २०३ ) ।
धवला में यहाँ यद्यपि इस शब्द पुनरावृत्ति का कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया । पर आगे जाकर सूत्र २०६ में पुनः इसी प्रकार का प्रसंग प्राप्त होने पर उसका स्पष्टीकरण उन्होंने इस प्रकार किया है-
'तिरिक्खा
एत्थ 'छडी पुढवीए णेरइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति' त्ति वत्तव्वं, ण 'णिरयादो रया' त्ति, तस्स फलाभावा ? ण एस दोसो, छट्ठीए पुढवीए रइया णिरयादोरियज्जायादो, उन्बट्टिदसमाणा - विगडा संता, णेरइया - दव्वट्ठियणयावलंबणेण णेरइया होदूण, कदि गदीओ आगच्छति त्ति तदुच्चारणाए फलोवलंभा (पु० ६, पृ० ४८५-८६) ।
३. इसके पूर्व यहीं पर 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के प्रसंग में प्राप्त सूत्र ११४ में जिन, केवली जौर तीर्थंकर इन तीन शब्दों का उपयोग किया गया है । इनमें जिन व केवली शब्द प्रायः समानार्थक हैं, फिर भी उनका जो पृथक्-पृथक् उपयोग किया गया है उनकी सफलता का स्पष्टीकरण धवला में कर दिया गया है।"
१. ओवयारियतिरिक्खपडिसे बिदियतिरित्रखगणं । तिरिक्खेहि तिरिक्खपज्जाएहि ।
- धवला पु० ६, पृ० ४५४
२. देखिये पु० ६, पृ० २४३-४७
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विवेचन-पद्धति / ४३
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