Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तरित्ययमत्र हेतुष्टव्यः । विशेषणं हि व्यवच्छेदफलं भवति ।
"स्व" विशेषण द्वारा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष मानने वाले मीमांसक का तथा दूसरे ज्ञान से उसे ग्राहक मानने वाले नैयायिक का खंडन होता है, अर्थात् ज्ञान स्व को जानने वाला है, अपर्व विशेषण से धारावाहिक ज्ञान का निरसन किया है, तथा सर्वथा ही अपूर्व वस्तु का ग्राहक प्रमाण होता है ऐसा माननेवाले भाट्ट का निरसन किया है, अर्थात् प्रमाण कथंचित् अपूर्व अर्थ का ग्राहक है, अर्थ-इस विशेषण से बौद्ध के प्रमाण का खंडन होता है, क्योंकि विज्ञानाद्वंतवादी, चित्राद्वैतवादी ज्ञान के द्वारा ज्ञान का ही मात्र ग्रहण होता है, क्योंकि ज्ञानमात्र ही तत्त्व है ऐसा वे मानते हैं, उन्हें समझाने के लिए कहा है कि ज्ञान अर्थ को-पदार्थ को जानने वाला है । बौद्ध ही ज्ञान को निर्विकल्प-अनिश्चायक मानते हैं सो उसका खंडन करने के लिये प्रमाण के लक्षण में "व्यवसायात्मकं" यह विशेषण प्रस्तुत किया है, ज्ञान विशेषण तो सन्निकर्ष, कारक साकल्य इन्द्रियवृत्ति, ज्ञातृव्यापार आदि अज्ञानरूप वस्तु को ही प्रमाण माननेवाले वैशेषिक आदि का निरसन करने के लिये उपस्थित किया है । इस प्रकार इन पांचों विशेषणों से विशिष्ट जो है वही प्रमाण है ऐसा अक्षुण्ण तथा निर्दोष लक्षण का यहां पर प्रणयन किया है।
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