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गाथा ७८ ] लब्धिसार
[ ६३. शंका-अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकांडकका प्रमाण एकप्रकारका है या उसमें जघन्य व उत्कृष्ट भेद भी सम्भव हैं ?
समाधान-जघन्यरूपसे पल्य के संख्यातवेंभाग आयामवाला होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामनाके योग्य सबसे जघन्य अन्तःकोडाकोडोप्रमाण स्थितिसत्कर्म से पाये हुए जीवके प्रथम स्थितिकाण्डकका पायाम पल्योपमका संख्यातवांभाग पाया जाता है, किन्तु उत्कृष्टरूपसे सागरोयमपृथक्त्वप्रमाण आयामवाला प्रथमस्थितिकांडक होता है, क्योंकि पूर्वके जघन्यस्थिति सत्कर्मसे संख्यातगुणे स्थिति सत्कर्मके साथ आकर अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके उसको उपलब्धि होती है ।
शका-दोनों जीवोंके ही विशुद्धिरूप परिणामोंके समान होनेपर घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मों में इसप्रकारकी विसदृशता क्यों होती है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि संसारावस्थाके योग्य अवःकरण विशुद्धियां सभी जीवों में समान होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है' ।
आगे स्थितिकाण्डकघातको विशेषताएं कहते हैंभाउगवजाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसत्तो। ठिदिबंधो य अपुरो होदि हुसंखेज्जगुणहीणो ॥७८॥
अर्थ-पायुकर्मको छोड़कर शेषकर्मोका स्थितिघात होता है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयके स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्धसे चरमसमय में अपूर्व स्थितिसत्त्व तथा स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है ।
विशेषार्थ-अपूर्वकरणमें संख्यातहजार स्थितिकांडक होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकांडक से दूसरा स्थितिकांडक संख्यातवांभागहीन है । इसप्रकार अन्तिम स्थितिकांडकके प्राप्त होने तक पूर्व-पूर्वके स्थितिकांडकसे आगे-मागे का स्थितिकांडक विशेष-विशेषहीन होता जाता है । अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिसत्कर्म से अन्तिमसमयवर्ती स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा होन है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथमसमय में जो पूर्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थिति है उसके संख्यातबहुभाग
१. २.
ज. प. पु. १२ पृ. २६० । ज. प. पु. १२ पृ. २६८ ।