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नाथा ६० ]
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लब्धिसार
विशेषार्थ - अन्तर में प्रवेश
[ ७३ करने के प्रथम समय में ही दर्शनमोहनीय का उपशामक उपशम सम्यग्दृष्टि हो गया, किन्तु यहां पर सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशमपने को प्राप्त होने पर भी दर्शनमोहनीय के संक्रमण और अपकर्षण करण पाये जाते हैं । उसी समय वह मिथ्यात्यकर्म के तीन कर्म रूप भेद उत्पन्न करता है । जैसे यन्त्र से कोदों के दलने पर उनके तीन भाग हो जाते हैं, वैसे ही अनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा दलित किये गये दर्शनमोहनीय के तीन भेदों की उत्पत्ति होने में विरोध का प्रभाव है ' ।
अब स्थिति अनुभागको अपेक्षा मिथ्यात्वद्रव्यका तीनरूप विभाग बताते हैंमिच्छत्तमिस्लसम्म सरूवेण य तत्तिधा य दव्वादो । सत्तीदोय असंखातेय य हाँति भजियकमा ॥१०॥
अर्थ - मिथ्यात्व, मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ), सम्यक्त्व प्रकृतिरूप दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार होता है वह क्रमसे द्रव्य की अपेक्षा असंख्यातवां भाग मात्र और अनुभाग की अपेक्षा अनन्तवां भाग प्रमाण जानना ।
विशेषार्थ - मिथ्यात्व के परमाणुरूप द्रव्य को गुणसंक्रम भागहार का अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक अधिक प्रसंख्यातसे गुणा करने पर जो लब्ध प्रावे उतने द्रव्य के बिना बहुभाग प्रभारण समस्त द्रव्य मिथ्यात्वरूप है । गुण संक्रमण भागहार से भाजित मिथ्यात्व द्रव्य को असंख्यात से गुणा करने पर जो लब्ध आया उतना द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणमित हुआ और गुणसंक्रमभागहार मे भाजित मिथ्यात्व द्रव्य को एक से गुणा करने पर प्राप्त लब्ध प्रमारण द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूप परिरमित हुआ उससे असंख्यातवां भाग रूप क्रम द्रव्यापेक्षा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्वप्रकृतिमें प्राप्त हुआ । अनुभागापेक्षा संख्यात अनुभागbishi के घात से मिथ्यात्व का अनुभाग पूर्व अनुभाग का अनन्तवांभाग प्रमाण अवशिष्ट रहा उससे श्रनन्तवां भाग अनुभाग सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग है तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के इस अनुभाग से अनन्तवां भाग सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग है ।
१.
ज. ध. पु. १२ पृ. २६०-६१ । ज. ध. पु. ६ पृ. ८३, क. पा. सुत्त. पू. ६२० सूत्र १०२-१०३ ध. पु. ६ पृ. ३८ व २३२ ध. पु. १३५. ३५८ श्रमितगति श्रावकाचार श्लो. ५३ ।
२. ध. पु. ६ पृ. २३५ ।
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