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गाथा ७४ ] क्षपणासार
[ ६७ सत्व विशेष अधिक होता है। यहां विशेष अधिकका प्रमाण अनन्त अविभागप्रतिच्छेद है। अनुभागका यह अल्पबहुत्व अन्तदीपक है, इससे नीचे भी संज्वलन के अनुभागसत्कर्म में अल्पबहुत्वका यही विधान है और अनुभागबन्ध भी इसी अल्पबहुत्व विधिक क्रमसे होता है।
'रसखंडफड्ढयात्रो कोहादीया हवंति अहियकमा ।
अवसेसफड्ढयाओ लोहादि अणतगुरिणदकमा ७४॥४६५॥
अर्थ:--अनुभागखण्डफे लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक क्रोधादि कषायोंमें विशेषअधिक क्रमसे होते हैं, किन्तु घात होने के पश्चात् शेष रहे स्पर्धक लोभादिकषायों में अनन्तगुणित क्रमसे होते हैं।
विशेषार्थः-शङ्काः---अश्वकर्णकरणसे नीचे अशेष अनुभागकाण्डकों में मानके स्पर्धक स्तोक, उससे विशेष अधिक क्रोधके, इससे विशेष अधिक मायाके और इससे विशेषअधिक लोभके स्पर्धक प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि अनुभागसत्त्वके अनुसार अनुभागकाण्डकघातोंमें अल्पबहत्व होता है, किन्तु अश्वकर्णकरणसम्बन्धी अनुभागकाण्डकमें क्रोधके स्पर्धक सबसे स्तोक और उससे मानसे लोभपर्यन्त स्पर्धक विशेष अधिक क्रमसे क्यों ग्रहण किए गये ?
समाधानः- अश्वकर्णकरण में घातसे बचे हुए शेष अनुभागका लोभसे अनन्तगुणा मायाका, मायासे अनन्तगुणा मावका और मानसे अनन्तगुणा क्रोधका, ऐसा क्रम होता है जो गाथामें कथित अनुभागके द्वारा ही सम्भव है अन्य प्रकार धातके द्वारा संभव नहीं है । अथवा अपूर्वस्पर्धक विधान के पश्चात् क्षय होनेवाले कर्मों में जिनका मन्द उदय होकर घात होता है उनके अनुभागसत्कर्मका बहुत घात होता है । लोभका सबसे अंत में घात होने से उसका मन्दतम उदय होकर घात होता है अत: अश्वकर्णकरणके प्रथमसमय में लोभके अधिकस्पर्धक घातके लिए ग्रहण होते हैं उससे पूर्व मायाका मन्दतर उदय होकर घात होता है और उससे भी पूर्व मानका मन्द उदय होकर घात होता है । क्रोधका सर्वप्रथम घात होवेसे उसके अनुभागका मानके समान मन्दउदय होकर घात नहीं होता, किन्तु मावको अपेक्षा विशेषअधिक अनुभागके साथ घात होता है। इसलिए
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४८१-६८ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३६५ । ज० घ० मूल पृष्ठ २०२३-२४ ।