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क्षपणासाच
[ गाथा ७५
अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमै अनुभागखण्ड के लिए ग्रहण किए गये स्पर्धक क्रोध के स्तोक, मानके विशेषअधिक, उससे मायाके विशेषअधिक और उससे लोभके विशेषअधिक इसक्रमसे होते हैं ।
क्रोध में जितना अनुभाग छोड़कर शेषको घात करनेके लिए ग्रहण किया जाता है मानमें उसका अनन्तत्रांभाग छोड़कर शेषको घात करनेके लिये ग्रहण करते हैं । इसीप्रकार माया व लोभ में भी जानना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण निम्न अङ्कसंदृष्टिसे हो जाता है ।
घात से पूर्व क्रोधादि चारसज्वलनकषायों के अनुभागका क्रम घात के लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक
क्रोधादिके शेष स्पर्धक
[९६६५६७/६८ ] [६४७८१२४] [ ३२/१६८४]
घातसे पूर्व क्रोधादि कषायोंके अनुभागका अल्पबहुत्व घात के लिए ग्रहण किये गए स्पर्धकोंका अल्पबहुत्व तथा क्रोधादिके शेष अनुभागका अल्पबहुत्व ये तीनों कल्पबहुत्व उपर्युक्त अङ्कसन्दृष्टि से स्पष्ट हो जाते हैं ।
अश्वकर्णकरणके प्रथमसमय में होनेवाले अपूर्वस्पर्धकों का कथन करते हैं-'ताहे संजलखाणं देसावरफढयस्स हेट्ठादी |
गुणमपुत्रं
यमिह कुदि हु भांतं ॥७५॥ ४६६ ॥
प्रर्थः - वहां अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथम समय में ही संज्वलनकषायोंके देशघाति जधन्यस्पर्धक के नीचे अमन्सगुणितहानिके क्रम से अनन्य अपूर्व अनुभागस्पर्धकों को करता है |
विशेषार्थ :- अश्वकर्णकरण करनेके प्रथमसमय में ही क्रोध मान-माया ओर लोभरूप चार संज्वलनकषायों के अपूर्वस्पर्धक करता है ।
अपूर्वस्पर्धक - जो स्पर्धक पूर्व में कभी प्राप्त नहीं हुए, किन्तु क्षपकश्रेणी में हो अश्वकर्णकरणके कालमें प्राप्त होते हैं और जो संसारावस्था में प्राप्त होने वाले पूर्वस्पर्धकों से अनन्तगुणितहानिके द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाववाले हैं वे अपूर्वस्पर्धक हैं ।
१. क०पा० सुत्त पृ० ७८६ सूत्र ४६०-४६६ घ. पु. ६ पृष्ठ ३६५-६६ । ज. व. मूल पृष्ठ २०२५ । २. कानि अपुष्वफद्दयारि णाम ? संसारावस्थाए पुग्व मलद्धप्पसरूवारिण सवगसेढीए चेव अस्सकरणद्धाए समुत्रलब्भमाणसरूवा रिण पुन्त्रकद्दरहितो अनंतगुणहाणीए ओवट्टिज्ज माणसहावरणि जाणि फद्दयाणि ताणि अपुण्यकारिणति भण्णते (ज० ध० मूल पृष्ठ २०२५ )