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क्षपणासार
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[गाथा १२५.१२६ कृष्टि अनन्तगुणेरूप घटते हुए अनुभागरूप होकर मध्यवर्ती कृष्टिरूप परिणमनकरके उदयमें आती हैं । बंध भी असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन व उपरितनष्टि छोड़कर बीचको असंख्यात बहभागप्रमाण कृष्टि जानना । उदयरूप कृष्टियों में जो उपरितन अनुदयकृष्टियोंका प्रमाण है उससे साधिक दुगुणे प्रमाणसहिन अवस्नन व उपरितन अष्टियों का प्रमाण सागर बचा कृष्टियों का प्रमाण होता है, इनका यहां बन्ध होता है। यहां मानादिको अपनी-अपनो प्रथम संग्रहकष्टिको अधस्तन व उपरितनष्टि प्रमाणका असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियों को नीचे और कार छोड़कर मध्य की बहुभागमात्र कृष्टि बंधतो है, किन्तु मानादिको तोनों हो संग्रहकृष्टियों का उदय नहीं है तथा क्रोध की द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टिका बन्ध व उदय दोनों हो नहीं है । इसीप्रकार मान-माया च लोभका कथन भी जानना ।
'कोहस्स पढमसंगहकि हिस्स य हेट्ठिमणुभयढाणा । तत्तो उदयट्ठाणा उवरिं पुण अणुभयट्ठाणा ॥१२५॥५१६॥ उवरि उदयट्ठाणा चत्तारि पदाणि होति अहियकमा। मज्झे उभयाणा होति असंखेजसंगुणिया ॥१२६१५१७॥
अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंमें अचस्तन अर्थात् प्रथम, द्वितीयादि अघस्तन अनुभयस्थानरूप (जिनका उदय और बन्ध दोनों ही नहीं हैं) अप स्तनकृष्टियोंका प्रमाण स्तोक है उसी (पूर्वोक्त अधस्तन अनुभयस्यानरूप कृष्टियोंके प्रमाणको पल्यके असंख्यात.भागका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण विशेषरूप अधिक अनुभयकृष्टियोंके ऊपरितनवर्ती जो अधस्तन उदयस्थानरूप (जिनका उदय तो पाया जाता है बन्ध नहीं पाया जाता) कृष्टिका प्रमाण है पश्चात् उसीको पल्यके असंख्यातवे. भागका भाग देनेपर उसमें से एकभागप्रमाण विशेष से अधिक उपरितन अर्थात् अन्त व उपान्तादि उपरितन अनुभ यस्थानरूप (बन्ध व उदयरहित) कृष्टि का प्रमाण है पश्चात् उसीको पल्यके असंख्यातवें भागका भागदेकर उसमें एकभागप्रमाण विशेषसे अधिक उन कृष्टियोंके नीचे पाये जानेवाले उपरितन उदयस्थानरूप (उदयसहित व बंधरहित)
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०५ सूत्र ६९३ से ६६७ । धवल पु० ६ पृ० ३८४ 1 जयधवल मूल पृष्ठ
२०६८-२०६६।