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शब्द
पृष्ठ
उत्कृष्ट कृष्टि
उपरितन कृष्टि उष्ट्रकूट श्रेणी
काण्डक कृष्टि अन्तर
केवलि समुद्घात
११९
११५
१०९
१००-१०१
कोटाकोटीसागर
४८
१६६
१६
( १७ )
परिभाषा
"उच्छिष्टावली" है। यानी स्थितिसत्त्व में श्रावली मांत्र के श्रवशिष्ट रहने पर वह उच्छिष्टावली कहलाती है ।
सबसे अधिक अनुभाग सहित अन्तिम कृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है । चरम द्विचरम आदि कृष्टियों को उपरितन कृष्टि कहते हैं ।
जिस प्रकार ऊँट की पीठ पिछले भाग में पहले ऊँची होती है पुनः मध्य में नीची होती है, फिर श्रागे नोची-ऊँची होती उसी प्रकार यहां भी प्रदेशों का निषेक श्रादि में बहुत होकर फिर थोड़ा रह जाता है । पुनः सन्धिविशेषों में अधिक और हीन होता हुआ जाता है । इस कारण से यहां पर होने वाली प्रदेश श्रेणी की रचना को उष्ट्रकूट श्रेणी कहा है । क० पा० सू० पृ० ८०३
जय धवल
२०५९-६४
श्रन्तर्मुहुर्त मात्र फालियों का समूह रूप " काण्डक" है ।
एक-एक कृष्टि सम्बन्धी प्रवान्तर कृष्टियों के अन्तर की संज्ञा "कृष्टि प्रन्तर" है । क० पा० सु० ७६१
केवली भगवान् प्रघातिया कर्मों की होनाधिक स्थिति के समीकरण के लिये जो समुद्घात ( अपने आत्म प्रदेशों को ऊपर, नीचे और तिर्यक रूप से फैलाना ) करते हैं, उसे केवल - समुद्घात कहते हैं । इस समुद्घात को दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप चार अवस्थाएं होती हैं। दण्ड समृद्घात में आत्म प्रदेश दण्ड के प्राकार रूप फैलते हैं । कपाट समुदघात में कपाट ( किवाड़ ) के समान आत्मप्रदेशका विस्तार बाहुल्य की अपेक्षा तो प्ररूप परिमाणमय ही रहता है, पर विष्कम्भ और श्रायाम की अपेक्षा बहुत परिमाणमय होता है। तृतीय समुद्घात में अघातिया कर्मों की स्थिति और अनुभाग का मन्थन किया जाता है, अतः तीसरा "मभ्यसमुद्घात" कहलाता है । इसे ( तृतीय समुद्घातको ) प्रतर समुद्घात और रुजक समुद्घात भी कहते हैं । समस्त लोक में आत्म प्रदेशों का फैलाव, चौथे समय में हो जाने से, चौथे समय में लोकपूरण समुद्घात कहलाता है। विशेष के लिए जयधवला का पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार तथा प्रस्तुत ग्रन्थ पृष्ठ १६६ से
२०३ देखना चाहिए ।
दस कोटाकोड़ी पल्य ( श्रद्धापल्य ) का एक सागर ( श्रद्धासागर ) होता है । तथा एकसागर को "करोड़ X करोड़ " से गुणा करने पर जो भावे वह कोटाकोटी