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शब्द
कोषकाण्डक
क्षायिक चारित्र
गुजरा
गुणसंक्रम
चूलिका
पृष्ठ
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६९
११
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( १८ )
परिभाषा
सागर कहलाता है । अर्थात् करोड़ X करोड़ x सागर = कोड़ा कोड़ीसागर | [ कर्मो की स्थिति श्रद्धापल्य, श्रद्धासागर से वर्णित है ]
श्राध की प्रपूर्वस्पर्धक संख्या को मान कपाय को प्रपूर्व स्वर्धक संख्या में से घटाने पर जो शेष रहे उसका क्रोध को अपूर्वस्पर्धक संख्या में भाग देने पर "क्रोध के काण्डक" का प्रमाण प्राप्त होता है । तथा उस काण्डकप्रमाण में क्रमश: एकएक अधिक करने से मान, माया एवं लोभ इन तीन काण्डकों का प्रमाण प्राप्त होता है। यानी क्रोध के काण्डक ( कोष काण्डक ) से एक अधिक कर नाम मान काण्डक है । इससे एक अधिक का नाम माया काण्डक है। तथा इससे भो एक अधिक का नाम लोभकाण्डक है ।
सकल चारित्रमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने वाले चारित्र को क्षायिक चारिश्र कहते हैं । त वृत्ति २-४ ल. सा. ६०६ घवल पु. १४ / १६ [ वारित 'मोहक्लएर समुष्णं खइयं चारित ]; त. वा. २/४/७ स सि. २/४ प्रादि । विशुद्ध मुराणी के द्वारा कमंत्रदेशों की निर्जरा होना गुरपथे पि निर्जरा है । "गुरग रेगी की पारभाषा के लिए देखो - उदयादि अवस्थित गुरुश्रेणी प्रायाम की परिभाषा में । इतना विशेष जानना कि गुरुश्रेणि निर्जरा कर्म की होती है; नोक्रम की नहीं । ६० ९ / ३५२
"समयं पडि श्रसंखेज्जगुणाए सढ़ीए जो पदेवसंकमो सो गुलसंकमो त्ति भादे ।” अर्थात् प्रत्येक समय श्रसंख्यातगुणी श्रेणी के द्वारा जो प्रदेश संक्रम ( अन्य प्रकृति रूप परिणमन ) होता है वह गुरणसंक्रम कहलाता है। जयधवल पु० ९ पृ० १७२ गो० क० जी० प्र० ४१३ आदि कहा भी है- श्रप्रमत्त गुणस्थान से प्राये के गुणस्थानों में बन्ध से रहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम श्रौर सर्व संक्रम होता है । घवल १६/४०९ प्रस्तुत ग्रन्थ में भी कहा है कि प्रतिसमय प्रसंख्यातगुणे क्रम से युक्त, प्रबन्ध प्रशस्त प्रकृतियोंका द्रव्य, बध्यमान स्वजातीय प्रकृतियों में संक्रान्त होता है, यह गुणसंक्रम है। ल. सा. ४०० गो० क० ४१६ अर्थात् विशुद्धि के वश प्रतिसमय संख्यातगुणित वृद्धि के क्रम से धवध्यमान पशुभ प्रकृतियों के द्रव्य को जो शुभ प्रकृतियों में दिया जाता है इसका नाम गुण संक्रम है ।
सूत्र सूचित श्रर्थ के प्रकाशित करने का नाम चूलिका है । घवल १० /३९५ जिस अर्थ-प्ररूपणा के किये जानेपर पूर्व में वरित पदार्थ के विषय में शिष्य को निश्चय
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