Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 633
________________ शब्द फालि बम्बावली मान काण्डक माया काण्डक लोभ काण्डक व्ययद्रव्य संऋमावली संग्रहकृष्टि संग्रहकुष्टि अंतर सूक्ष्म पुष् ४८ ८० ८१ ८२ १२१ ९४ १०० १०१ १८६.१५१ सूक्ष्मसाम्पराय- १५० कृष्टिकर परिभाषा (iv) आगामी पर्याय में वर्तमान पर्याय के प्रभाव को प्रध्वंसाभाव कहते हैं । जं० सि० प्र० १८३ (1) समय - समय में जितना द्रव्य संक्रमित होता है वह कालि है । ( संक्रम प्रकररण में } (i) स्थिति काण्डक के प्रकरण में जितना द्रव्य काण्डक में से प्रति समय श्रवशिष्ट नीचे की स्थिति में दिया जाता है वह फालि है । ( २१ ) (iii) ऐसे ही उपशमन काल में पहले समय जितना द्रव्य उपशमाया वह उपशम की प्रथम फालि, द्वितीय समय में उपशमाया वह उसकी द्वितीय फालि इत्यादि । भावतः समुदायरूप एक क्रिया में पृथक्-पृथक् खण्ड करके विशेष करना "फालि" कहलाता है । इसे लावली भी कहते हैं । प्रकृति का बन्ध होने के बाद प्रावली मात्र कालतक वह उदय, उदीरणादिरूप होने योग्य नहीं होता, यही मानलीकाल बन्धाबली है । इसे श्रावाधावली भी कहते हैं । देखो क्रोधकाण्डक की परिभाषा में | " י, " " देखो प्रायद्रव्य की परिभाषा में । जिस श्रावली में संक्रमण पाया जाय वह संमावली है । श्रीवादि संज्वलन कषायों की जो बारह, नो, छः और तीन कृष्टियों होती हैं क० पालु० पृ० ८०६ वे ही संग्रह कृष्टियां । पुन: इस एक-एक संग्रह कृष्टि की श्रवयव या अन्तर कृष्टियां श्रनन्त होती हैं । (क० पा० सुत पृ० ८०६) क्योंकि अनन्त कृष्टियों के समूह का ही नाम संग्रह कृष्टि है | (i) परस्थान गुणकार का नाम संग्रहकृष्टि प्रन्डर है । ( जयमल मू० २०५० ) (ii) संग्रहृष्टियों के और संग्रहकृष्टियों के अधस्तन उपरिम अन्तर ११ होते हैं, उनकी संज्ञा " संग्रहकृष्टिमन्तर"; ऐसी है । क. पा सु. पृ. ७९९ सू. ६११ परमाणु श्रादिक सूक्ष्म है। धर्मद्रव्य, कालाणु, पुद्गलपरमाणु प्रादि सूक्ष्म हैं 1 पंचाध्यायी २०४८३, लाटी संहिता ४७ आदि । संज्वलन लोभकषाय के अनुभाग को बादर साम्परायिक कृष्टियों से भी अनन्तगुणित हानिरूप से परिमित करके प्रत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभागरूप से

Loading...

Page Navigation
1 ... 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644